उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
चन्द्रमाधव: भाग 2
1
चंद्रमाधव
को पहचानते ही रेखा के चेहरे पर विस्मय की दौड़ती लहर के साथ...स्थान है,
न झगड़ा करके फ़ायदा है। रेखा को झुकना पड़े, वह समय आएगा अपने-आप आएगा,
ज़रूर आएगा। “नहीं रेखा जी, मैं केवल अपने दोषों की बात कह रहा था - उन्हें भूलकर फिर आप मुझे फ्रेंड का गौरव दे सकें तो...”
“फ्रेंडशिप बाहर की स्थिति नहीं है, चन्द्र जी, वह अपनी प्रवृत्ति का नाम है। मैं तो फ्रेंड के सिवा कुछ हो ही नहीं सकती अब।”
चन्द्र ने आँखें सकोच कर उसकी ओर देखा। मन-ही-मन कहा, “तो ऐसी बात है - फ्रेंड के सिवा कुछ हो नहीं सकतीं आप हम सबके लिए - सारी दुनिया के लिए - केवल एक ही व्यक्ति है जो....” और वह उसके चेहरे में खोजने लगा उस एकमात्र व्यक्ति के प्रभाव की कोई छाप-क्या यह जो दीवार की-सी दूरी है, वह आवरण, यह केवल गहरी अनुभूति का परदा नहीं है जो भोक्ता को बाकी जगत से अलग कर देता है? जो भी किसी ऐसी अनुभूति से गुजरता है, उसकी छाप को एक कवच की तरह पहन लेता है, और वह उसे औरों से अलग कर देती है, वैसे लोगों की एक अलग बिरादरी हो जाती है। रेखा कहेगी 'जीवन की नदी में अनुभूति के द्वीप'...अगर वह थोड़ा-सा कोंच कर, कुरेद कर, नीचे उस सतह पर पहुँच सके जहाँ जीव को दर्द होता है, वह तिलमिलाता है।
प्रत्यक्ष उसने कहा, “थैंक यू, रेखा जी; मैं भी शायद अब फ्रेंड के सिवा कुछ नहीं हो सकता।” वाक्य का दोहरा अर्थ है, यह उसने लक्ष्य किया पर उसमें दोष क्या है, कलाकार तो हमेशा दोहरे अर्थों से खेलता ही रहता है। “पर क्या हम लोग बाहर कहीं नहीं चल सकते - वाई. डब्ल्यू. लाउंज तो बात करने के लिए नहीं है।”
“चलिए।”
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