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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


“मैंने तो सुना था आप नैनीताल गयी हैं और भुवन, कश्मीर, पर गौरा कह रही थी कि आप भी कश्मीर गयी थीं - मुझे तो अचम्भा हुआ।”

“हाँ, मैं कश्मीर भी गयी थी। नैनीताल पहले गयी थी, लौटकर फिर कश्मीर।” रेखा ने स्थिर भाव से कहा। फिर सहसा एक ऊब की लहर-सी उसके भीतर उमड़ी : जानना चाहता है तो जान ले न, यह भी अधूरी बात है, एक बार कह ही दी जाये पूरी बात तो यह पैंतरेबाजी खत्म हो। उसने अनमने से ढंग से जोड़ दिया, “डाक्टर भुवन भी नैनीताल गये थे; वह पहले लौटकर कश्मीर गये; मैं सीधी चली गयी थी।”

उसके अनमनेपन की ओर लक्ष्यकर के चन्द्र सोचने लगा, यह बात क्या है? क्या सारी बात ऐसी है कि इस अनमने ढंग से कह डाली जाये - या कि बात इतनी बड़ी है कि अब छिपाव को भी छोड़ दिया गया? ऐसा है तो - अगर भुवन न होता, वह होता, तो वह भी छिपौवल छोड़ दिया - बल्कि इतना भी नहीं, वह ऐलानिया कहता; वह काम छोड़कर रेखा को लेकर कहीं चला जाता बर्मा-वर्मा; वह प्रेम क्या जिसके लिए सब कुछ वारा-न्यारा न कर दिया जाये? आशिक वह जो सर पै कफन बाँधे फिरे, यह क्या कि आशिकी भी हो रही है, रिसर्च भी, और नौकरी भी चल रही है...।

“कैसा है पहाड़ों का मौसम? सुना है बड़ी भीड़ है इस साल, ठहरने को भी कहीं जगह नहीं मिलती।”

हाँ, तो यह भी आप पूछना चाहते हैं... थके भाव से रेखा ने कहा, “नैनीताल में तो जगह थी होटलों में, पर हम लोग नीचे चले गये थे; होटल में नहीं ठहरे। और कश्मीर तो मेरा घर ही है।”

“हाँ, ऑफ़ कोर्स।” कहकर चन्द्र ने कुछ ऐसे भाव से रेखा की ओर देखा, मानो कह रहा हो, देखिए, इससे आगे मैं कुछ नहीं पूछ रहा हूँ, टैक्ट का तकाज़ा है; यों जानना चाहना स्वाभाविक होगा आप मानेंगी...।

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