| उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
    रेखा की विरक्ति सहसा एक शारीरिक थकान बनकर उसकी देह
    पर छा गयी। एक धूमिल उछटती नज़र से उसने डेविको के चायघर के फैलाव को,
    विशाल गलीचे और भारी परदों को देखा; उफ़ कैसी है यह घुटन-कहाँ है इसमें
    कोई रन्ध्र जिसमें से धुन्ध का अजगर आकर सारी झील को छा ले और क्षितिजों
    को मिला दे! उसने क्षण भर आँखें बन्द कर लीं, उसका हाथ कनपटी तक उठा और उस
    काल्पनिक लट को सँवारता हुआ कान के पीछे से ग्रीवा के मोड़ के साथ लौट
    आया। सहसा उसने पूछा, “चन्द्र जी, आप का परिवार कहाँ है?” 
    
    चन्द्र
    के ओठ पतले हो आये, लेकिन निमिष-भर के लिए ही; फिर उसने तपाक से कहा, “ओ,
    हाँ, रेखा जी, आप को ख़बर देना तो भूल ही गया। वे लोग लखनऊ आ रहे हैं।
    मेरे पास ही रहेंगे।” 
    
    “सच?” रेखा ने सहसा गम्भीर होकर कहा, “यह बहुत अच्छी बात है चन्द्र जी। आइ
    होप यू आर हैपी।” 
    
    “ह्वट
    इज़ हैपिनेस, रेखा जी; कुछ और बात करिए, हैपिनेस तो एक कल्पना है या उस
    अवस्था का नाम है जिसमें हम अपनी ज़रूरत को अभी जानते नहीं हैं। इनसान के
    लिए हैपिनेस नहीं है - क्योंकि वह लाइलाज जिज्ञासु है। वह जान के रहेगा और
    जानेगा तो भोगेगा!” 
    
    खण्डन में रेखा की रुचि नहीं थी। फिर भी इतना
    कहे बिना वह न रह सकी : “जिज्ञासु ही हैपिनेस जान सकता है; नहीं तो जिसने
    उसे जाना नहीं वह भोगेगा क्या? कोई चीज़ स्थायी नहीं है, इसी से वह
    कल्पना-मात्र तो नहीं हो जाती?” 
    
    “पर स्थायी नहीं है तो हैपिनेस कैसे है? जिसके साथ छिन जाने का डर बराबर
    लगा है, वह प्राप्ति कैसी है?” 
    			
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