| उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
    “नहीं, फिर जाएँगे, मेरी वजह से आ गये।” 
    
    “आप भी जाएँगी?” 
    
    “शायद-” 
    
    “कब?” 
    
    “इसी
    हफ़्ते जाने की सोच रहे हैं-” भीतर से उत्तर आया, और साथ-साथ गौरा के पिता
    ने दरवाज़े पर प्रकट होते हुए कहा, “कहो भई, कब आना हुआ?” 
    
    गौरा ने फुर्ती से कहा, “मैं चाय लाती हूँ,” और भीतर चली गयी। 
    
    
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    तीन दिन बाद जब रेखा को लेकर चन्द्रमाधव फिर वहाँ गया तब भी गौरा का बर्ताव कुछ ऐसा ही था-चिकना, विनीत, शिकायत से परे, मगर दूर...। परस्पर नमस्कार और परिचय के बाद जब तीनों बैठ गये तो एक क्षण का मौन उन पर छा गया। चन्द्र चाहता था कि इन दोनों को मिला देने की अपनी सफलता पर प्रसन्न हो, पर एक अजब संकोच का भाव उसके भीतर भर रहा था - एक अनिश्चय, एक आशंका-सी...। वह चुप-चाप चोर आँखों से कभी रेखा को, कभी गौरा को देख रहा था; ये दोनों बात करने लगें तो कुछ ठीक हो...।
पर वे दोनों भी चुप थीं। रेखा को गौरा ने चन्द्र के पास ही सोफे पर बिठाया था, स्वयं दूसरी ओर तख़्त के कोने पर सीधी बैठी थी। एक हाथ हल्का-सा तख़्त पर टिका हुआ, आँखें नीचे झुकी हुई। उसने बिल्कुल सफेद धोती पहन रख थी - बहुत छोटी छोटी सफेद बूटी वाली चिकन की - गहने वह यों भी नहीं पहनती थी और आज चन्द्र ने लक्ष्य किया कि उसके हाथों पर साधारण एक-एक चूड़ी और एक अँगूठी भी नहीं, स्फटिक से घिरी हुई निष्कम्प लौ की तरह वह अपने में सिमटी बैठी थी। रेखा ने भी सफेद रेशमी साड़ी पहन रखी थी, जिस अनुपात में रेशम की सफेदी चिकन की अपेक्षा कोमल थी, उसी अनुपात में उसका साँवला वर्ण भी मानो गौरा का धूमिल प्रतिबिम्ब था। गौरा सिमटी हुई और दूर थी, रेखा की आँखों में वह अस्पृश्य खुली दूरी नहीं थी पर मानो एक मेघ घिरे आकाश का-सा भाव था...।
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