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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


रेखा ने कहा, “गौरा जी, चन्द्र जी बता रहे थे कि आप दक्षिण से संगीत की विशेष शिक्षा पूरी करके आयी हैं?”

गौरा ने सायास कहा, “जी, दक्षिण से तो अभी आयी हूँ। गयी थी संगीत सीखने ही, पर दो वर्ष में क्या आता है!”

रेखा ने पूछा, “दक्षिण का संगीत तो बिल्कुल अलग है न-मैं कुछ जानती तो नहीं पर सुना है।”

“हाँ-पर मैंने तो सुना है आप बहुत अच्छा गाती हैं-”

“नहीं गौरा जी, वह तो-”

चन्द्र ने बात काटते हुए कहा, “हाँ गौरा जी, हमने बहुत दिन से सुन रखा था, पर उस दिन भुवन के आग्रह से सुनने को न मिल गया होता तो रेखा जी कबूलती थोड़े ही कि....”

रेखा सहसा उठकर गौरा के पास चली आयी। “यहाँ बैठ जाऊँ - यह बीच में शून्य का एक चौखट रख के आर-पार बात करने का अंग्रेज़ी तरीका मुझे पसन्द नहीं है।”

“बैठिए।”

चन्द्र बोला, “इस समय भुवन को भी यहाँ होना चाहिए था - कितना अच्छा होता।” फिर दोनों की ओर देखकर, “गौरा जी, भुवन का कोई पत्र-वत्र आया है इधर? मुझे तो बहुत दिनों से कोई खबर नहीं है।”

“नहीं तो।” गौरा ने बिना किसी की ओर देखे उत्तर दिया। फिर सहसा बोली, “वह लगनवाले आदमी हैं - खोज में लगे हैं तो और किसी बात की खबर उन्हें थोड़े होगी! उन्हें खाने-पीने का भी होश नहीं रहता जब काम कर रहे हों।”

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