उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
कौशल्या क्षण-भर
अनिश्चित रही; उत्तर देने को थी कि चन्द्र ने हाथ बढ़ा, उसकी कमीज़ का गला
पकड़ कर अपनी ओर खींच लिया। खींचने से दो-तीन टीप-बटन खुल गये, पर चन्द्र
की पकड़ नहीं छूटी; कौशल्या खिंच आयी; चन्द्र ने सहसा खड़े होते-होते
दूसरी बाँह उसके सिर के पीछे ले जाते हुए उसे और निकट खींच लिया; पास आते
चेहरे पर उसने देखा, कुछ विस्मय, कुछ अचकचाहट, कुछ प्रतीक्षा, ओठों के
अधखुलेपन में इन सब के मिश्रण से ऊपर भी एक अकथ्य भाव; इससे आगे वह नहीं
देख सका क्योंकि ओठों के छूते-न-छूते कौशल्या ने हाथ बढ़ा कर बत्ती बुझा
दी थी, चन्द्र ने उसकी काँपती-सी देह को खींचकर चारपाई पर गिरा लिया और एक
क्रूर चुम्बन से उसके ओठ कुचल दिये-अँधेरे में कौशल्या की देह का कम्पन
सहसा स्थिर हो आया-उन ओठों में वासना थी, सूखे गर्म ओठ, पुरुष के ओठ, पर
प्रेमी के नहीं; प्यार नहीं, बीते हुए स्मरणाश्रित चुम्बनों की गरम-गरम
राख...।
उसकी शिथिल देह पर भार दिये-दिये ही चन्द्र जब सो गया, तब
भी वह निश्चल पड़ी रही, थोड़ी देर बाद जब वह करवट लेकर उससे अलग हो गया तब
वह धीरे-से उठी, अपने कपड़े उसने ठीक किये, फिर दबे पाँव निकल कर दूसरे
कमरे में चली गयी। साधारणतया वह उसी कमरे में दूसरी चारपाई पर सोती थी; पर
सुबह जब चन्द्र उठेगा तब उसके द्वारा देखा जाना वह नहीं चाहती; वह जानती
है कि उस समय उसे वहाँ पाकर चन्द्र सहसा अजनबी आँखों से उसे देखेगा और फिर
उनमें घृणा घनी हो आएगी...यह-यह अपने-आप में कुछ भी है या नहीं वह नहीं
जानती; प्यार होता तो अवश्य होता, पर जब नहीं है तो यही बहुत है; उस घृणा
के साथ तो यह भी ज़हर हो जाएगा...ऐसे ही सही, सवेरे चन्द्र उठे तो उसे न
देखे, न घृणा करे। राख ही सही, पर घृणा की साँस उसे भी उड़ा न दे...।
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