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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


रेखा : भाग 2

1
पत्र को बन्द कर देने से पहले बहुत देर तक रेखा देखती रही, यद्यपि था वह मुश्किल से आधे पृष्ठ का। लेकिन उसकी आँखें पत्र के शब्दों पर नहीं टिकी थी, वरन् उसके आशय पर; और पत्र का आशय उसके शब्दों के आशय से भिन्न कुछ गहरा कुछ था, जिसके कारण उसकी दृष्टि दूर कहीं खो गयी थी। जहाँ वह बैठी थी, वहाँ उसके आगे कुछ बादाम के पेड़ थे, उससे आगे मौसमी विलायती फूलों की क्यारी, उसके बाद फिर पेड़, दूर पर पहाड़ों की कतार जो घनी बदली के कारण डरावनी हो आयी थी। पत्र पर टिकी हुई आँखें मानो इस सारे दृश्य को भी अपने में समा ले रही थीं और कुछ नहीं देख रही थीं। यह कश्मीर था - उसके पूर्वजों का कश्मीर, इसलिए उसका कश्मीर, जिसका सब-कुछ उसका ग़ैर था। जलवायु, वनस्पति, आकाश, लोग, यहाँ तक कि सर्वत्र बिखरे हुए उसके नाते-रिश्तेदार भी, जिनके नाम भी वह नहीं जानती थी, चेहरे तो दूर, और जिनमें से अधिकांश को उसके अस्तित्व का भी पता नहीं था...कितना अजनबी, अकेला और ग़ैर हो सकता है व्यक्ति, जब यह अपने घर में अजनबी होता है... लेकिन यही अच्छा है : क्योंकि इस अजनबीपन में कोई भी वास्तव में ग़ैर नहीं है; वह एक द्वीप है जिसके चारों ओर नदी का प्रवाह है; उसमें और द्वीप हैं; कहीं कोई साझा सीमान्त नहीं है, किसी से कोई सीधा सम्पर्क नहीं, केवल नदी के माध्यम से, नदी जो माँ है, धारयित्री है, तारयित्री है, जो अन्त में एक दिन आप्लवन में सबको समा लेगी...।

नीचे कहीं वह रास्ता है, जिससे दो-ढाई महीने पहले वह पहलगाँव गयी थी, तुलियन गयी थी। क्या सचमुच गयी थी? लेकिन नहीं, यह सन्देह फिर कभी उसके मन में नहीं उठा है। अयथार्थ को आत्म-समर्पण करने का जो डर कभी उसने जाना था, जो कभी उसने जीत लिया था, वह फिर कभी नहीं जागा है; वह समर्पित है और जिसके प्रति समर्पित है वह उसकी धमनियों में स्पन्दित...”मैं फुलफ़िल्ड हूँ”, इस अनुभूति की दीप्ति अब भी उसके अन्तःकरण को आलोकित किये है, और कभी बात करते-करते या बैठे-बैठे इसकी कान्ति सहसा उसके चेहरे पर फैल जाती है तो बूढ़ी मिसेज़ ग्रीव्ज़ चकित होकर देखने लगती है, और ख़ुश होती है कि उसकी संगिनी, सहायिका और प्रबन्धकर्त्री में ऐसी आध्यात्मिक कान्ति है...।

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