उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
भुवन
ने उसी ढंग से कहना चाहा, “न, मिरेकल इस देश में भी होते हैं।” पर यह मानो
उसे अनुगूँज लगी दूर कहीं की घंटियों की - ज़बान पर आयी बात रुक गयी और वह
फिर चुप हो गया। थोड़ी देर बाद उसने फिर हँसने का यत्न करते हुए कहा, “खोज
तो दूसरे करते हैं - विज्ञान के विद्यार्थी का तो सारा जीवन ही खोज है।”
“ओ हो! तब जब कुछ मिल जाएगा तो भौंचक-से देखते रह जाएँगे। सब-कुछ कॉस्मिक
रश्मियों की तरह थोड़े ही यन्त्र से नाप लिया जाता है।”
“खास
कर स्त्री - यही न? पर यह क्यों मान लेती हो कि मैं ही खोजूँगा - वह भी तो
खोजेगी - बल्कि वही खोज लेगी - स्त्रियों की बुद्धि तो अचूक होती है न ऐसे
मामलों में? मैं-यन्त्र-केवल इतना जान लूँगा कि खोज पूरी हो गयी।”
भुवन
को थोड़ा-थोड़ा लग रहा था कि वह उसके लिए अस्वाभाविक ढंग से बात कर रहा
है, कुछ-कुछ बेवकूफ़ी की भी बात कर रहा है। पर इस तरह की गैर-ज़िम्मेदार
बातें मानो एक छद्म थी जिस की ओट में उसकी भीतरी आकुलता और असमंजस छिप
जाता था। वह कहता गया, “राह चलते जिस दिन बैठे-बैठे जानूँगा, मेरे पीछे
कोई है और मुड़ कर नहीं देखूँगा और वह झुककर अपने खुले बाल मेरी आँखों के
आगे डाल देगी - उस दिन में जान लूँगा कि मेरी खोज - कि मेरे लिए खोज
समाप्त हो गयी, और पड़ाव आ गया।”
गौरा अनिश्चित-सी हँसी, “क्या बच्चों की-सी बात करते हैं आप। या
रोमांटिकों जैसी।”
“क्यों?”
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