उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“और
नहीं तो क्या। कौन वह सुन्दरी होगी जो ऐसे अपने केशों में आप को बाँध
लेगी-ऐसी तो रोमांटिकों की वह सनातन चुड़ैल थी-लिलिथ-जो अपने सुनहले बालों
से लोगों के दिल बाँध लिया करती थी और वे सूख जाते थे। क्यों नहीं आप उन
नाइटों की बात सोचते जिनके माथे पर तारा चमका करता था?”
“तारों
की खोज क्या कम पागलपन है, गौरा? इतने बड़े आकाश में कोई एक तारा चुन
लीजिए, अच्छा चुन ही लीजिए, अंग्रेजी में कहते तो हैं कि 'अपना छकड़ा तारे
के पीछे जीत लो' पर तारे तक पहुँचे तब तो।”
“या तारा ही आप तक पहुँचे।”
नहीं,
यह भी प्रतिध्वनि है-कहाँ किस की प्रतिध्वनि? 'कोई बात नहीं, मैन फ्राइडे,
तारा ख़ुद तुम्हें ढूँढ़ लेगा।'-'मैं अँधेरे में डूबना नहीं चाहती, नहीं
चाहती!'-'अच्छा मैन फ्राइडे, तुम्हारा तारा कौन-सा है?'-'और
तुम-शुक्रतारा।' 'क्यों, चाँद नहीं?' 'वेन मैन! नहीं, शुक्र, केवल
शुक्र!'-'मेरा तारा।'
भुवन खड़ा हो गया। प्याला उसने रख दिया, टहलने लगा।
“क्या बात है भुवन दा?”
भुवन
ने पैंतरा करते हुए कहा, “हमारे प्रोफ़ेसर कहते थे, विज्ञान से जिसकी शादी
हो जाती है, उसे फिर और कुछ नहीं सोचना चाहिए। वह बड़ी कठोर स्वामिनी है।”
गौरा ने कहा, “हूँ। यों तो संगीत-कोई भी कला-और भी कठोर स्वामिनी
है; और विज्ञान का मनचलापन तो सन्दिग्ध भी हो सकता है, कला के बारे में तो
सन्देह की गुंजाइश नहीं।” फिर वह रुक कर क्षण-भर स्थिर दृष्टि से भुवन को
देखती रही। “मगर भुवन दा, हम लोग क्या बे-बात की बात कर रहे हैं; आप-आप
हैं कहाँ?”
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