उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“गौरा।” भुवन ने पास आकर एक हाथ गौरा के कन्धे पर
रखा और चुप हो गया। धीरे-धीरे उसका हाथ हटने लगा पर गौरा ने उस पर अपना
हाथ रखकर उसे रोक लिया और बड़े अनुरोध से कहा, “बताइये न, भुवन दा।”
भुवन
ने धीरे-धीरे हाथ खींच लिया। “कुछ नहीं गौरा; अपने भविष्य के बारे में
नहीं सोचा करता, तुम्हारे ही भविष्य की बात सोचा करता हूँ।” कुछ रुककर, पर
गौरा को बोलने का मौका दिये बिना, “यों तो भविष्य की बात ही नहीं सोचनी
चाहिए - वर्तमान ही सब-कुछ है, भविष्य केवल उसका एक प्रस्फुटन।”
यह क्या हो गया है उसको? यह भी प्रतिध्वनि है...।”
गौरा ने उलहने के स्वर में कहा, “यह आप कहते हैं, भुवन दा, आप?”
ठीक है गौरा का उलहना, भुवन के भीतर कुछ उमड़ कर बोला था, तुम कैसे ऐसी
बात कह सकते हो, और गौरा को...।
ठीक
इस समय, बड़े मौके से, भुवन का नौकर आ गया था। साधारणतया उसी को आकर चाय
देनी चाहिए थी, पर रसोई में आकर उसमें उथल-पुथल के लक्षण देखे तो भीतर
देखने चला आया, भीतर गौरा को चाय लिए बैठे देखकर वह मुड़ गया एक हलकी-सी
मुस्कराहट को छिपाने के लिए-तो डाक्टर साहब के लिए अभी कहीं कुछ उम्मीद
है..।.'
भुवन अपनी ही बात को लेकर हँस दिया। “और नहीं तो क्या?
सोचने को तो हम बहुत सोचते हैं, पर जब जाँच कर देखते हैं तो यही मानना
पड़ता है कि हाँ, वर्तमान ही सब-कुछ है।”
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