उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
पत्र उसे कालेज में मिला था। कालेज से लौटने से पहले
उसने रेखा को तार दे दिया कि वह आ रहा है, और छुट्टी का आवेदन भी दे दिया,
बल्कि थोड़ी देर बाद स्वयं प्रिंसिपल के पास जाकर स्वीकृति भी ले ली। शाम
को रवाना हो गया।
5
मोटर के अड्डे पर रेखा हो भी नहीं सकती थी, पर भुवन ने उतर कर चारों ओर नज़र दौड़ाकर देख लिया मानो उसे खोज रहा हो, फिर जब वह कहीं न दीखी तो उसे सन्तोष हुआ। बाहर निकल कर ताँगा लिया, पर पते के लिए दो-एक जगह पूछना पड़ा। अन्त में जब ठीक पता पाकर ताँगा मिसेज़ ग्रीव्ज़ के बग़ीचे की ओर बढ़ चला, फाटक पर पहुँच कर रुका और भुवन ने उतर कर उस पर लगा हुआ ग्रीव्ज़ नाम का बोर्ड भी देख लिया, तब ताँगे को जल्दी बढ़ने के लिए न कहकर उसने वहीं रोक दिया। “हम अभी पूछ कर आते हैं ठीक होने से भीतर बुला लेंगे।” कहकर वह गेट खोल कर भीतर बढ़ा, ताँगे वाले की पुकार उसने अनसुनी कर दी कि “सा', ब, ताँगा भीतर ले चलूँ, सा'ब!”
एक डर-सा उसके मन पर छा गया, पर उसने उसे साफ़ सामने लाकर नहीं देखा। प्रार्थना-सी यही बात बार-बार उसके ओठों पर आने लगी कि जब वे मिलें तो रेखा अकेली हो - चाहे कितनी थोड़ी देर के लिए, औरों के बीच में न उसे रेखा से साक्षात् करना पड़े...मन में यह भी प्रश्न उठता कि क्या रेखा ठीक वैसी ही होगी, या उसका रूप कुछ बदल गया होगा - पर इस प्रश्न को भी वह दबा देता : कुछ नहीं सोचेगा वह रेखा को देखने तक-और देखे तो वह अकेले में ही देखे...।
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