उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
दूर से
ही उसने उसे देख लिया। बरामदे में आराम-कुरसी पर वह बैठी थी; सारा शरीर
ढलती धूप में, केवल चेहरा छाँह में था और स्पष्ट दीखता नहीं था। रेखा ने
वही परिचित मक्खनी सफ़ेद रेशमी साड़ी पहन रखी थी, पहनने का ढंग कुछ अनोखा
था और मानो उसे और भी दूर अलग ले जाता था। उसने भुवन को अभी नहीं देखा था,
भुवन कुछ और भी ओट होकर दबे-पाँव चलने लगा; बिलकुल बरामदे के पास आकर जब
उसने बरामदे की काठ की सीढ़ी पर पैर रखा, तभी आहट से वह चौंकी, मुड़कर
उसने देखकर पहचाना और कहा, “भुवन! अरे, भुवन, तुम।” और उठ बैठी पर उठी
नहीं, वहीं से उसने बाँहें बढ़ायीं कि भुवन लपक कर पहुँच गया, एक बाँह से
उसने रेखा को घेर लिया और कुरसी की बाँह पर अध-बैठा होते-होते उसे खींच कर
अपने से लगा लिया, उसके माथे पर गाल टेककर स्तब्ध रह गया, रेखा के दिल की
धड़कन उसकी जाँघ पर बहुत हलका ताल देने लगी...थोड़ी देर बाद उसने बहुत
धीमे भर्राये स्वर में कहा, “रेखा, तुम-रेखा...” रेखा ने चेहरा थोड़ा ऊँचा
उठाया, उसकी नाक भुवन के गाल में धँस गयी, अब-खुले ओठों से साँस का हलका
स्पर्श भुवन के नासा-मूल को गुदगुदाने लगा, तब सहसा भुवन के ओठों ने उसके
ओठ ढूँढ लिए...फिर उसने खड़े होते हुए कहा, “रेखा, मैं अभी आया-बाहर ताँगा
है।”
रेखा ने कहा, “तुम नहीं जाओ, यहीं से पुकारो 'सलामा'-वह बुला लाएगा।”
भुवन क्षण-भर उसे ताकता रहा। “कितना अच्छा हुआ कि तुम अकेली थी जब मैं
पहुँचा, रेखा।”
रेखा ने समझ कर धीरे से हाथ उसकी ओर उठा दिया, कुछ कहा नहीं, उसकी आँखों
की गहरी मुस्कराहट ही उसे दुलरा गयी।
भुवन ने बरामदे की ओर बढ़ कर पुकारा, “सलामा!” फिर मुड़ कर रेखा ने पूछा,
“मिसेज ग्रीव्ज़ कहाँ रहती हैं - तुम अकेली हो?”
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