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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


हाथ धोकर भुवन फिर लौटा तो उसे लगा, रेखा अभी फिर उठना चाहेगी। उसने घड़ी देखी; रात के साढ़े ग्यारह बजे थे। ऐसे तो रात नहीं कट सकती। वह...वह सहसा निश्चित कदमों से बाहर निकल गया। क्वार्टर तक जाकर उसने सलामा को बुलाया, अपने कमरे में लाकर एक चिट्ठी लिखकर दी, और उसे कहा, “मेम साहब की हालत नाजुक है-दौड़े हुए मिशन जाओ और उनको बोलना कि एम्बुलेंस गाड़ी लेकर आएँ-डाक्टर भी साथ में, फौरन-जाओ, शाबाश।”

सलामा गया। भुवन फिर रेखा के कमरे में लौटा।

रेखा ने वह इशारा करना भी छोड़ दिया। वह अर्द्ध-चेतन अवस्था ही स्थायी हो गयी। भुवन ही थोड़ी देर बाद उठता, एक पट्टी उठाकर दूसरी लगा देता, हाथ धोकर फिर आ जाता...।

रेखा का कराहना भी बन्द हो गया था। कभी वह हल्का-सा 'हूँ-हूँ' करती, नहीं तो मौन : एक अजब डरावना सन्नाटा छा गया था। भुवन वर्षा का स्वर सुन रहा था। बीच-बीच में कभी अचानक कुछ गिरने का 'धप्' का स्वर सुनाई देता था-पहले वह समझ न सका कि यह क्या है, फिर सहसा जान गया : पके फल...रात के सन्नाटे में फल का यह चू पड़ना हैबतनाक था - मानो एक द्रुत कारणहीन मृत्यु आकर किसी को ग्रस ले...।

अगर सलामा असफल रहा, अगर रात को डाक्टरों ने उसकी न सुनी - वह स्वयं जाता तो और बात थी - अगर अस्पताल में एम्बुलेंस न हुई - उसने लिख तो दिया था, डाक्टर तो आएगा पर अगर पैदल आना हुआ तो - ओह रेखा, यह तुम ने क्या किया।

वह फिर उठा। बाथ-रूम की ओर जाते हुए उसने अपने हाथों की ओर देखा-सहसा ऐसा सिकुड़ गया मानो आसन्न वार के आगे कोई सिकुड़ जाये : सर्जन-हुँह, हत्यारा! सर्जन-सर्जन-बीनकार सर्जन...हत्यारा कौन? हत्यारा वह है, वह स्वयं-पर रेखा, रेखा, यह तुम ने किया क्या-क्यों...।

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