उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“अच्छा डाक्टर! यह अच्छे डाक्टर के काम हैं?” भुवन की वाणी में अवश रोष
उभर आया।
रेखा ने कहा, “भुवन, तुम अभी मुझे छोड़कर चले जाओगे तो मुझे शिकायत नहीं
होगी। जाओ, मैं कहती हूँ-गाड ब्लेस यू, प्राण।”
भुवन चुप हो गया। रेखा थक कर लेट गयी, थोड़ी देर बाद फिर उठी और भुवन कमरे
से बाहर चला गया।
फिर
लौटा तो रेखा का चेहरा सफेद हो रहा था। थोड़ी देर बाद रेखा ने आँखें खोलीं
तो भुवन बोला, “मैं डाक्टर बुलाकर लाता हूँ-ऐसे नहीं।”
रेखा ने सहसा चीख कर कहा, “नहीं भुवन, तुम मेरे पास से नहीं जाओगे।” फिर
कुछ संयत होकर “या - जाते हो तो - अच्छा।”
वह फिर मूर्च्छित-सी हो गयी।
थोड़ी
देर बाद फिर जागी, उसकी मुद्रा देखकर भुवन बाहर जाने लगा, पर किवाड़ पर न
जाने क्यों रुक गया। मुड़कर देखा तो रेखा फिर पीछे गिर गयी थी। वह लौट
आया।
“नहीं सकती, भुवन-और नहीं चल सकती।”
भुवन थोड़ी देर
सकुचाया खड़ा रहा। फिर उसने लैम्प और परे की ओर मोड़ दी, रुई का बड़ा-सा
टुकड़ा लेकर तह जमायी, और रेखा की ओर झुक गया। रेखा ने हाथ रुई की ओर
बढ़ाया। पर वह निर्जीव-सा रह गया, रुई को ठीक से पकड़ भी नहीं सका।
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