उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“अब-ज्यादा, रेखा; जितना कभी नहीं किया उतना।”
रेखा
ने आँखें बन्द कर लीं। मुस्कराना चाहा। ओठ खुले और ज़रा-सा खिंच कर रह
गये। भुवन ने देखा, ओठ भी सफेद हैं-बल्कि धूमिल; ज़रा-सा गीलापन लिए; और
रेखा ने फिर आँखें खोली तो उसने लक्ष्य किया, कोये भी पीले हैं - पीले और
मैले, और पुतलियाँ कान्तिहीन यद्यपि बढ़ी हुई...। वह प्रार्थना करता हुआ
झुका, “ईश्वर, रेखा इस स्पर्श को अनुभव कर सके-शरीर से भी, मन से
भी-ईश्वर, यह एक सन्देश उसकी चेतना तक पहुँच जाये।” और रेखा का नम माथा
उसने चूमा, फिर ओठों से ही उसकी पलकें बन्द करते हुए पलकें।
रेखा निश्चल हो गयी। भुवन ने घड़ी फिर देखी। एक। अब तक तो एम्बुलेंस आ
जानी चाहिए थी अगर अस्पताल में होती-क्या होगा?
भुवन ने रेखा पर झुककर कहा, “अब तुम मुझे माफ़ कर दो, रेखा; अब जो मेरी
बुद्धि में समाता है करूँगा।”
उसने
बहुत-सी रुई लेकर पट्टी लगायी, नया तौलिया लेकर कमर पर लपेट दिया, फिर
कम्बल अच्छी तरह उढ़ाकर रेखा को करवट घुमाकर नीचे भी दबा दिया। बाहर से एक
बरसाती लाकर रेखा के बगल में बिछायी, उसे उठाकर बरसाती पर लिटाया और
बरसाती को लपेट दिया। कमरे और बरामदे के किवाड़ खोल दिये; अपने कमरे में
जाकर उन्ही कपड़ों पर ओवरकोट पहना। दूसरी बरसाती सिर पर ओढ़ी और भीतर आकर
रेखा के नीचे दोनों बाँहें ऐसे डाली कि उसकी ओढ़ी हुई बरसाती रेखा के सिर
और पैरों पर आ जाय। फिर उसने रेखा को उठा लिया और बाहर चल पड़ा। ऐसे उठाये
कितनी दूर जा सकेगा, उसने नहीं सोचा। कन्धे पर उठाकर जरूर अस्पताल तक के
तीन मील जा सकता, पर उससे शायद रक्त-स्राव अधिक हो इसलिए गोदी में ही
उठाना ठीक था।
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