उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
अगर एम्बुलेंस आयी? तो हर्ज नहीं, रास्ते में मिलेगी ही। और अगर नहीं आयी?
तो ऐसे भी वह तीन बजे तक अस्पताल पहुँच ही जाएगा...
वह तो पहुँच जाएगा, पर रेखा भी पहुँचेगी कि नहीं...।
पौने
दो...वह बड़ी सड़क पर आ गया था, कुछ आगे भी चल सका था। एक बार एक पेड़ के
नीचे उसने तीन-चार मिनट रेखा को लिटा कर बाँहें सीधी की थी। बाकी चलता रहा
था। हाँ, तीन नहीं तो सवा तीन तक वह अवश्य अस्पताल पहुँच सकेगा...।
तभी
दूर पर रोशनी दीखी-मोटर की ही है-फिर मोटर की घर्र-घर्र सुनायी पड़ी-क्या
एम्बुलेंस है? न भी हो तो क्या? भुवन ने रुककर, सड़क के किनारे की ढाल पर
एक पैर टेक कर रेखा का भार एक घुटने और बाँह पर लिया, दूसरी बाँह मुक्त कर
ली कि हिलाकर गाड़ी रोकेगा।
एम्बुलेंस ही थी। उसके पास आकर रुक गयी, सेवक कूद कर उतरा; भुवन ने चाहा कि रेखा को उठाकर स्ट्रेचर पर लिटा दे, पर बाँहें उठी नहीं। सेवक ने खींचकर स्ट्रेचर निकाला और हाथ देकर रेखा को लिटा दिया, ऊपर से डाक्टर ने स्ट्रेचर को अन्दर खींचा, सेवक सवार होकर भुवन को भी खींचने लगा तो डाक्टर ने कहा, “आप आगे-मरीज़ को देखना होगा।” आगे से सलामा उतर रहा था, भुवन ने उसे सवेरे ही अस्पताल पहुँचने को कहा और सवार हो गया। गाड़ी मुड़ने लगी तो डाक्टर ने भीतर से आवाज़ दी, “ठहरो अभी-इंजेक्शन लगा लें!” इंज़न बन्द हो गया।
फिर वही टपाटप-अब और भी जोर से क्योंकि बूँदें एम्बुलेंस की लकड़ी और कैनवस की छत पर पड़ रही थीं। भुवन के कान गाड़ी के भीतर से आने वाले शब्दों पर लगे थे, पर शब्द बहुत कम थे, और जो थे उनसे कुछ नहीं जाना जा सकता था कि क्या हो रहा है।
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