उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
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अन्तिम दिन वे तीनों सिनेमा गये थे। यों शाम के शो में भी जाया जा सकता था, पर एक बजे काफ़ी हाउस में मिलने की ठहरी थी और भुवन का प्रस्ताव था कि वहीं से तीन बजे के शो में चला जाये ताकि शाम को थोड़ा घूमने का समय मिल सके।
अंग्रेजी चित्र था, जिसमें एक दुर्घटना में नायक का स्मृतिलोप हो जाता है, और वह अपनी गृहस्थी की बात भूल कर पुनः प्रेम करने लगता है; और फिर एक वैसी ही दुर्घटना देखकर उसकी पहली स्मृति लौट आती है और नया स्मृति-संचय मिट जाता है। कहानी भी मार्मिक थी और अभिनय भी भावोद्वेलक; पर उसे ध्यान से देखते हुए भी भुवन मन-ही-मन सोचता जाता था कि इसकी रेखा पर क्या प्रतिक्रिया हो रही होगी। क्योंकि सम्पूर्ण तटस्थ भाव से तो कुछ देखा नहीं जाता; हम अनजाने कथावस्तु पर अपना आरोप करते चलते हैं; या फिर अपने पर ही कथा की घटनाएँ घटित करते चलते हैं और मन की यह भी एक शक्ति है कि जरा-से भी साम्य के सहारे वह सहज ही सम्पूर्ण लयकारी सम्बन्ध जोड़ लेता है। क्या रेखा अपने को अमुक स्थिति मे देख रही है? क्या...बीच-बीच में वह खीझ कर अपने को झकझोर लेता कि नहीं, रेखा की बात वह नहीं सोचेगा, पर फिर थोड़ी देर में वैसा ही प्रश्न उसके मन में उठ आता-अगर रेखा का पति...।
बाहर आकर तीनों टहलते हुए गोमती की ओर निकल गये थे। पुल के पास घाट की सीढ़ियों पर तीनों बैठ गये थे। चलते-चलते चित्र के विषय में कुछ बात हुई थी, पर “अच्छा है” से अधिक रेखा ने कोई मत व्यक्त नहीं किया था; वह स्पष्ट ही कुछ अनमनी थी।
सहसा भुवन ने पूछा, “रेखा जी, आप गाती नहीं?”
“गाती नहीं, यह तो नहीं कह सकती, पर गाना जानती नहीं हूँ।”
चन्द्र ने साभिप्राय भुवन की ओर देखा।
“आप की मातृभाषा तो बांग्ला है न?”
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