उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
रेखा
ने एक बार दृष्टि उठा कर भुवन से मिलायी। उसमें बड़ा हल्का-सा अचम्भा था,
और कुछ यह भाव कि आपने पूछा है तो उत्तर देती हूँ, पर अपने बारे में
प्रश्नों का उत्तर देने का मुझे अभ्यास नहीं। फिर उसने कहा, “उँ-हाँ, वही
मेरी भाषा है।”
“तो बांग्ला में ही गाना गा दीजिए न-मेरा यह आग्रह गुस्ताखी तो न होगा?”
रेखा
थोड़ी देर चुप रही। फिर धीरे-धीरे बोली, “नदी का किनारा है, गान यहाँ होना
ही चाहिए - आप की मान्यताएँ भी इतनी रोमांटिक होंगी ऐसा नहीं समझती थी।”
भुवन
ने आहत भाव से प्रतिवाद करना चाहा, पर बोला नहीं। चन्द्र मानो आँखों से कह
रहा था, “तुम हो दुस्साहसी, पर देखें तुम्हारी बात सुनती है कि नहीं -
मेरी तो कभी नहीं सुनी।”
सहसा दोनों निश्चल हो गये, क्योंकि रेखा कुछ गुनगुना रही थी। फिर उसने
धीमे किन्तु स्पष्ट स्वर में गाना शुरू किया :
आमार रात पोहालो शारद
प्राते -
आमार रात पोहालो।
बांशी तोमाय दिये जाबो
काहार हाते -
आमार रात पोहालो।
तोमार बूके बाजलो धुनि
, विदाय गाँथा आगमनि
कत ये फाल्गुणे
श्रावणे कत प्रभाते राते -
आमार रात पोहालो।
ये कथा रय प्राणेर
भीतर अगोचरे
गाने -गाने निये छिले
चूरि करे
समय ये तार हल गत ,
निशि शेषे तारांर मत,
तारे शेष करे दाओ
शिउलि फूलेर मरण साथे -
आमार रात पोहालो !
(मेरी
रात चुक गयी शायद प्रातः में ; बंशी, तुम्हें, किसके हाथ सौंप जाऊँ? कितने
फागुन-सावन में, कितने प्रभात-रात में तुम्हारे हृदय में विदा से गुँथी
हुई आगमनी की धुन बजी है। प्राणों के भीतर जो कथा अगोचर थी, तुमने गान में
चुरा ली थी। उसका समय बीत गया निशा-दोष के तारों-सा, उसे अब शेफाली के फूल
के मरण के साथ समाप्त कर दो। -रवीन्द्रनाथ ठाकुर)
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