उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
|
390 पाठक हैं |
व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“जो कह नहीं पाती।”
“अब भी?”
रेखा ने भी मुस्करा कर कहा, “अब और भी ज़्यादा, भुवन!”
थोड़ी
देर फिर दोनों चुप रहे। फिर रेखा ने कहा, “वहाँ मेरी कोई-चिट्ठियाँ आवें
तो तुम पढ़ लेना। जो ठीक समझो कर देना, चाहे उत्तर दे देना। और-चाहो
तो-चिट्ठियाँ फाड़ कर फेंक देना।”
“तुम्हारी चिट्ठियाँ!”
“हाँ
भुवन - मैं स्वयं तो कह रही हूँ! और ज़्यादा दिन तो यह बोझ तुम पर नहीं
डालूँगी - यही पाँच-सात दिन। यहाँ कोई डाक मत लाना - अगर तुम ही ज़रूरी न
समझो।”
भुवन ने विरोध करना चाहा कि यह बड़ा दायित्व है, फिर चुप रह गया - शायद
ऐसी कोई चिट्ठी आये ही नहीं कि उसे सोचना पड़े...।
दूसरे
दिन वह रेखा की माँगी हुई चीज़ें और कुछ फूल लेकर पहुँचा। फूल सजाने लगा
तो रेखा मुस्कराती देखती रही। फूलदान सजाकर वह उसे घुमा-फिरा कर रेखा की
दृष्टि से ठीक कोण पर रखने लगा तो वह हँस पड़ी। “हाँ, तुम भी इसी एंगल पर
खड़े रहो-तुम्हें भी देखती रहूँगी!”
|