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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


16

उस शाम को तो नहीं, अगली शाम को भुवन की रेखा से भेंट हुई। दोनों ही कुछ बोल नहीं सके, रेखा ने एक दुर्बल मुस्कान से उसका स्वागत कर दिया और पड़ी रही , भुवन पास बैठ गया और स्थिर दृष्टि से उसे देखता रहा। दोनों को लग रहा था कि जिस अनुभूति में से वे गुज़रे हैं, उसके बाद शब्दों में कुछ कहा नहीं जा सकता - शब्द मानो एक ख़तरनाक औज़ार हो गये हैं जिसकी चोट से जो कुछ बचा है वह सबका सब हरहरा कर गिर पड़ेगा - पहले ही उच्चारित शब्द पर सारा भविष्य टँगा हुआ है...।

फिर रेखा ने एक साथ ही भँवें सिकोड़ते और मुस्कराते हुए पूछा, “भुवन - अब भी?”

और भुवन ने कहा, “हाँ, रेखा, ज्यादा।”

मानो हवा में तनाव कम हो गया। रेखा ने तकिया गले की ओर खींच कर जरा-सा ऊँचा कर लिया, भुवन खिड़की से बाहर का दृश्य देखता रहा।

“कैसी हो, रेखा?”

“ठीक हूँ। और तुम? क्या करते हो वहाँ?”

भुवन ने उत्तर नहीं दिया। “तुम्हारे लिए कुछ लाऊँ - किसी चीज़ की ज़रूरत।”

“नहीं। अच्छा, दो-एक किताबें ले आना, और एक छोटी कापी और पेंसिल”

भुवन मुस्करा दिया। “क्या कहना चाहती हो, रेखा?”

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