उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“यहाँ
ऐसी धूप है कि सोच भी नहीं सकते बाढ़ की बात; जिस दिन आयी थी - जिस दिन
तुम लाये थे उठाकर।” सहसा उसका गला भारी हो आया। “भुवन?” और उसने भुवन की
ओर दोनों हाथ बढ़ा दिये। भुवन, फुर्ती से आगे बढ़ा, दोनों हाथों की
उँगलियाँ उसने अपने हाथों में लीं और बारी-बारी से उठाकर ओठों से लगा ली।
फिर वह उँगलियों को देखने लगा - ठण्डी, पीली, नाख़ून लगभग सफ़ेद और नीचे
किंचित् नीलाभ - फिर उसने धीरे-धीरे हाथ रेखा की बग़ल में रखकर ढँक दिये।
रेखा
के कहने से भुवन फिर मिसेज़ ग्रीव्ज़ से मिल आया था, और वह आकर रेखा को
देख गयी थी। तब से रोज़ ही आती, प्रायः ही खाने का कुछ सामान लाती केक,
मधु, जैम, चॉकलेट...। रेखा अस्पताल छोड़कर घर जाएगी, इस सूचना से वह बहुत
खिन्न थी-”मैंने तो सोचा था, और मुझे कभी ढूँढ़ना नहीं पड़ेगा।” वह प्रायः
जल्दी ही आती, भुवन देर से आता; कभी उनकी भेंट हो जाती, कभी उसके जाने पर
ही भुवन पहुँचता।
भुवन ने कुछ डरते-डरते पूछा, “रेखा, अब-यह तो बता दो कि तुमने किया क्या
था -यह कैसे हुआ?”
रेखा
थोड़ी देर चुप पड़ी रही। फिर उसने कहा, “मैं डाक्टर के पास गयी थी। फिर
वापस आयी तो-वह चिट्ठी-” उसने फिर आँखें बन्द कर ली, थोड़ी देर बाद फिर
कहने लगी, “उससे सब बदल गया। फिर एक दूसरे डाक्टर के पास गयी जो सर्जन भी
था - उसे जो कहा सो तो अब छोड़ो, पर बहुत अनुनय पर वह मान गया। आपरेशन के
लिए उसी के क्लिनिक में गयी थी।”
“तो-यह-कैसे....”
उसका प्रश्न समझ कर रेखा ने कहा, “उसने कहा था कि दो-एक दिन बाद हेमरेज
होगा। पर ऐसा, यह अनुमान तो नहीं था-”
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