उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“वह है कौन सर्जन, रेखा?”
“वह
अब जाने दो, भुवन! मैंने उसे बहुत पर्सुएड किया था - बल्कि धर्म-संकट में
डाला था। और लापरवाही उसने नहीं की। यह मत कहना कि वह प्रोफेशन का कलंक है
- मैं नहीं मानूँगी।”
भुवन चुप रह गया, केवल एक लम्बी साँस उसने ली। थोड़ी देर बाद उसने कहा,
“लेकिन रेखा, वह चिट्ठी तो...”
रेखा ने एक हाथ उठाकर उसे चुप कर दिया। पीड़ित स्वर में बोली, “अब वह जो
हो, भुवन; इट इज़ टू लेट।”
जिस
दिन रेखा अस्पताल से छूटने को थी, उस दिन भुवन दोपहर को टैक्सी लेकर आ
गया। डाक्टर-मेट्रन-नर्स को धन्यवाद देकर वह रेखा को लेने पहुँचा तो वह
धूप में आराम-कुर्सी पर बैठी थी। भुवन ने हाथ बढ़ाते हुए पूछा, “चल
सकोगी?”
“हाँ सकूँगी - पर फिर भी सहारा लूँगी - मे आइ?” भुवन की बाँह में उसने
बाँह डाल दी और उस पर झुकती हुई चलने लगी।
भुवन
ने उसे कार में बिठाया, फिर लौटकर सामान वग़ैरह लेकर रखा। बख़शीशें दीं,
और आ गया। गाड़ी चल पड़ी। रेखा ने कहा, “कितनी सुन्दर है धूप-और रोशनी-मैं
मानो फिर से दुनिया को विज़िट करने आ रही हूँ।”
अपनी ही बात पर वह उदास हो गयी। “वापस लेकिन कोई कहीं नहीं आता।”
“न सही वापस-वापस आना कोई चाहे क्यों? दुनिया अनवरत अपने को नया करती जाती
है - वह नयापन।”
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