उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
रेखा ने कहा, “अब तो सेब पक गये होंगे।”
भुवन
ने कहा, “हाँ।” फलों पर और पेड़ों के नीचे की हरियाली पर खेलती धूप
अत्यन्त सुन्दर थी; उसे किसी कविता की एक पंक्ति याद आयी - 'द एपल ट्री, द
सिंगिंग, एण्ड द गोल्ड'...सुन्दर, व्यंजना-भरी पंक्ति है - गाल्सवर्दी ने
इसी पंक्ति को लेकर एक कहानी लिखी है जो उसे कभी बहुत अच्छी लगी थी...।
'शरद्, धुन्ध और स्निग्ध सुफलता की ऋतु' - लेकिन सहसा उसे याद आयी रात में
चुपचाप टपक पड़नेवाले पके फल की वह लोमहर्षक आवाज़, और एक अनिर्वचनीय गहरी
उदासी उस पर छा गयी। पका फल चुपचाप टपक पड़ना - उसके बाद फिर? हाँ, है
शरद् की धूप का सोना, पकती दूब का सोना, है वह गिरा हुआ फल भी, पर - क्या
वह अन्त है?
भुवन दिल्ली तक रेखा के साथ गया।
कलकत्ते की गाड़ी में बैठ कर रेखा प्लेटफ़ार्म पर खड़े भुवन को देखने लगी। क्षण-भर के लिए जैसे सिनेमा में होता है, एक चित्र घुलकर दूसरे में पलट गया। भुवन हाथ से कुछ मसल कर उसकी गोली ठोकर से उछाल रहा है - उसका प्लेटफ़ार्म टिकट; फिर पहला दृश्य लौट आया। न, अब वह भुवन से नहीं कहेगी; किसी अनुभव को दुबारा चाहना भूल है... और अभी वह वैसी यात्रा पर जा भी नहीं रही। वह चुपचाप पड़ी रहना चाहती है, और भुवन को भी अकेला छोड़ देना चाहती है। उस अकेले चिन्तन में जो निकले, निकले। वह बुद्धिमती होती, तो भुवन को पास रखना चाहती, उसके पास रहना चाहती, उससे बराबर सम्पर्क रखती कि जानती रहे, उसके मन से क्या गुज़र रहा है, पर वह बुद्धिमती नहीं है, न होना चाहती है। उसे कुछ चाहिए नहीं, उसे कुछ सँभालना नहीं है - 'हाउ टु होल्ड ए मैन'...
भुवन ने थोड़े फल लेकर उसके पास रख दिये। फिर भीतर आकर एक नज़र इधर-उधर डाली, फिर बिस्तर खोलकर कुछ बिछा दिया, कुछ लपेट कर ऊपर रख दिया। रेखा ने कहा, “यहीं बैठो न?”
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