उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
भुवन कुछ झिझका। ज़नाना डिब्बा था, और भी दो-एक स्त्रियाँ बैठी थीं। उसने
कहा, “नहीं, मैं खिड़की पर खड़ा होता हूँ।”
“टहलें”
“नहीं रेखा, तुम बैठो। थक जाओगी - और अभी कितना सफ़र बाकी है।”
रेखा ने हाथ खिड़की पर रखा था, भुवन ने बाहर से उस पर अपना हाथ रख दिया।
धीरे से पूछा, “ठीक हो न, रेखा?”
“हाँ, बिलकुल, तुम?”
“हाँ”
थोड़ी देर बाद भुवन ने पूछा, “रास्ते भर क्या करोगी - कुछ पढ़ने को ले
दूँ?”
“क्या? ये स्टेशनवाली किताबें-मैगज़ीन! न - इससे तो सोऊँगी।”
“तो मैं कुछ दूँ? कविता है – ब्राउनिंग।” फिर सहसा रुककर, “नहीं और एक
चीज़ देता हूँ - मेरी एक कापी।”
रेखा ने खिलकर कहा, “तुम्हारी कापी, भुवन?”
भुवन
जल्दी से बोला, “नहीं, वैसी नहीं; यह दूसरे ढंग की कापी है - एकदम भानमती
का पिटारा। जो पढ़ता हूँ उसमें जो अच्छा लगता है लिख लेता हूँ - बरसों की
पढ़ाई का मुरब्बा है।”
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