| उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
    रेखा की ओर देखकर वह मुस्करा दिया। 
    
    थोड़ी देर बाद गाड़ी ने सीटी दी। भुवन ने कहा, “पहुँचते ही लिखना, रेखा!
    और नियम से लिखती रहना कि कैसी हो - जल्दी से ठीक हो जाओ!” 
    
    “लिखूँगी, भुवन! रेल ही में से नहीं लिखूँगी, यह कैसे जानते हो?” वह
    मुस्करा दी। 
    
    गाड़ी चल दी। भुवन ने उसके दूर हटती खिड़की पर रखे हाथ को दबाकर कहा, “गाड
    ब्लेस यू।” 
    
    रेखा के ओठों की गति से उसने समझ लिया, वह कह रही है, “एण्ड यू।” 
    
    गाड़ी
    दूर हट गयी। जब उसकी गति तेज हुई, तो रेखा के ओझल होते हुए आकार को एक-टक
    देखते भुवन को एक अजीब अनुभूति हुई; उसे लगा कि गाड़ी उसके सामने से दूर
    नहीं, उसे भेदती हुई चली जा रही है आर-पार, जहाँ से गुज़र रही है वहाँ एक
    बहुत बड़ा रिक्त छोड़ती हुई, उस रिक्त को एक असह्य गड़गड़ाहट और गर्म
    फुफकारती भाप से भरती हुई...।
    
    एकाएक उसने अपने हाथ की ओर देखा - उसमें एक कागज़ था। ओ-हाँ...”भुवन, हम
    क्यों आकारों से इतना बँध जाते हैं कि आत्मा मर जाये?” 
    
    दूसरे
    प्लेटफ़ार्म पर दूसरी गाड़ी है। उसमें भुवन का सामान है। वह उसमें सवार
    होगा, फिर वह भी चल देगी; उसे आर-पार भेदती हुई, एक बड़ा रिक्त बनाकर
    उसमें असह्य गड़गड़ाहट और गर्म भाप भरती हुई। और रेखा... 
    			
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