| उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
    भुवन का सामान प्लेटफ़ार्म पर रखा था :
    खोलकर उसने कापी निकाली और रेखा को दे दी। रेखा ने सब पन्ने चुटकी में
    लेकर फड़फड़ा कर देखे, फिर सहसा कापी उलटती हुई बोली, “दोनों तरफ़ से लिखी
    हुई है?” 
    
    भुवन कुछ सकपकाता-सा बोला, “उधर कुछ नहीं है।” 
    
    स्त्री-स्वभाव से रेखा ने पहले 'कुछ नहीं' वाला पक्ष देखना शुरू किया। 
    
    “वह रहने दो, रेखा, अच्छा रेल में पढ़ती रहना - वह जो मेरे अपने दिमाग में
    आया लिखता रहा हूँ।” 
    
    “ओ-उधर मुरब्बा है, इधर रसायन है,” रेखा ने चिढ़ाया। “तो ठीक तो है-पहले
    रसायन का सेवन, फिर मुरब्बे का।” 
    
    “नॉटी वुमन!” कहकर भुवन हँसने लगा। 
    
    दूसरी तरफ़ भुवन की गाड़ी भी लग गयी। कुली ने कहा, “साहब, सामान रख लीजिए
    नहीं तो भीड़ हो जाएगी।” 
    
    “होने
    दो।” कहकर भुवन कुछ रुका, फिर उसने कहा, “अच्छा ले चलो।” फिर रेखा की ओर
    मुड़कर, “मैं अभी आया।” रेखा के हाथ को उसने थपथपा दिया। 
    
    चार-पाँच
    मिनट में वह लौट आया। रेखा अपनी कापी में कुछ लिख रही थी, थोड़ा मुस्करा
    रही थी। भुवन खिड़की पर खड़ा हुआ, तो लिखा हुआ परचा फाड़कर रेखा ने उसे
    दिया। 
    
    उसने पढ़ा, “यह जो पड़ोसिन बैठी है, मुझसे पूछ रही थी, ये
    आपके हज़बैंड हैं? मैंने कहा, हाँ। शादी को कितने बरस हुए हैं? मैंने कहा,
    सात। बोली, बड़ी भाग्यवती हैं आप! क्यों? कि सात बरस बाद भी आप के हज़बैंड
    आपको इतना प्यार करते हैं! भुवन, आकारों में हम क्यों इतना बँध जाते हैं
    कि आत्मा मर जाये?” 
    			
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