उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
कभी सोचती हूँ,
हर वक़्त इस तरह तुम्हारा ध्यान नहीं करती रहूँगी... इसीलिए इधर कुछ काम
भी शुरू किया है!... पर अगर सारा दिन भी अपने को उलझाये रखूँ, तो रात को
जब सोने जाती हूँ-और फिर नींद में-मैं बिलकुल बेबस हो जाती हूँ, और
तुम्हारी सुधि न जाने कहाँ-कहाँ खींच ले जाती है...कभी सवेरे सपना देख कर
उठती हूँ, तो फिर वह दिन भर छाया रहता है, मुझसे कोई काम नहीं होता,
नशे-से मैं बाहर आकर बैठ जाती हूँ, और नदी को देखती रहती हूँ, पर नदी भी
नदी नहीं रहती, उसका प्रवाह मेरा तुम्हारी ओर प्रवाह बन जाता है...
भुवन, क्या मेरी सुध नहीं लोगे?
रेखा द्वारा भुवन को :
मेरे भुवन,
आज मैं अकेली सैर के लिए गयी थी नदी के साथ-साथ! बादल घने होकर झुक आये थे, लग रहा था कि बारिश अब हुई, अब हुई; पर उनके नीचे छोटे-छोटे टुकड़े अलग भटक रहे थे और उनको सूर्य का प्रकाश एक नारंगी सुनहला रंग दे रहा था। भटकते हुए मुझ पर वही गहरी उदासी छा गयी और मैं तुम्हारे लिए छटपटा उठी; यों तो तुम्हारी इस उपेक्षा में सदैव उदास रहती हूँ और छटपटाती रहती हूँ...फिर मन में विचार उठा, तुम्हारे मौन से मुझे जो इतना कष्ट होता है, मैं जो तुम्हारे इस व्यवहार से मर्माहत हो रही हूँ उसका कारण यही है कि जो मुझे मिल चुका है उसी को और पाना चाहती हूँ। और यह लालच कितना अनुचित है... मैं क्यों उदास होऊँ? मान ही लो कि तुम उदासीन हो रहे हो, कि तुम मुझसे दूर चले जाओगे, तो भी विषाद क्यों, अवसाद क्यों! जो कुछ भी मैं चाह सकती, वह मैंने तुम्हारे साथ में पाया है प्यार भी, वासना भी, दोनों का चरम सुन्दर रूप-तब और लालच क्यों? तुम्हारा मौन मुझे खलता है क्योंकि मैं अधिकाधिक माँगती हूँ और वह सम्भव नहीं है, वह उचित भी नहीं है, अतीत को कोई भविष्य नहीं बना सकता...।
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