उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
इसलिए भुवन, मैं पिछले पत्रों में
कुछ उलटा-सीधा लिख गयी होऊँ तो मुझे माफ़ कर देना। तुम्हारे मौन पर क्लेश
मुझे हुआ है, होता है; मेरा स्नायु-तन्त्र ऐसा जर्जर हो गया है कि ज़रा-सी
बात से झनझना उठता है और मैं झल्ला उठती हूँ - पर इस समय मैं शान्त हूँ,
और मैं अपनी आकुलता के लिए क्षमा माँगती हूँ। तुम मुक्त हो भुवन, बिलकुल
मुक्त, मैं चाहती हूँ कि सर्वदा सगर्व कहती रह सकूँ कि तुम मुक्त हो मेरे
भुवन, मुझे भूल जाने के लिए उतने ही मुक्त जितने मुझे प्यार करने के लिए
थे और हो...तो भुवन, मेरे प्रिय, मेरे क्लेश की परवाह न करो, अगर चिट्ठी
लिखने का मन नहीं है तो मत लिखना; या जब वैसा जानोगे तो मुझे एक पंक्ति
लिखकर सूचित कर देना कि तुम्हारी भावनाएँ बदल गयी हैं। सह लूँगी...
इधर
तीन-चार दिन से मैं सोचती रही हूँ कि क्या हमारा भविष्य एक हो सकता
है-क्या उसकी कोई सम्भावना है? क्या हम फिर कभी मिलेंगे?...मैंने बहुत
ठण्डे दिल से सोचा है, भुवन; और अब कभी यह भी सोचती हूँ कि क्या मुझे
जैसे-तैसे वापस हेमेन्द्र के पास ही नहीं चला जाना चाहिए अगर वह राजी हो?
मैं भीतर मर गयी हूँ, भुवन; तुमसे कटकर फिर मैं कहीं भी बह जा सकती हूँ
किसी भी बुरे से बुरे नर-पशु के साथ भी रह सकती हूँ...एक तुम्हीं ने मेरी
जड़ित आत्मा को जगाया था और उसके बाद उसके फिर जड़ हो जाने पर मैं पहले से
बदतर मृत्यु में सहज ही जा सकती हूँ। इसीलिए सोचती हूँ, क्या वही न ठीक
होगा , टूटी हुई रीढ़ वाली इस देह के लिए एक सहारा-एक छत-आत्मा की बात तो
अब कौन करे!
यह बात मैं कैसे लिख गयी - मैं-यह नहीं जानती। पर यह
आत्मा की जड़ता की ही एक निशानी है, भुवन! आशा करती हूँ कि यह अधिक नहीं
रहेगी - यह आहत पक्षी फिर वैसे ही उड़ सके यह तो असम्भव है, पर – वह अभी
नहीं, वह कभी नहीं...।
मेरी सब शुभाशंसाएँ तुम्हारे साथ हैं, भुवन!
रेखा
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