उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
अभी-अभी दिल्ली की एक चिट्ठी से पता लगा कि आप आज़ाद हो गयी हैं।
कुछ दिन पहले हेमेन्द्र से भेंट हुई थी-वह लखनऊ आये थे-तब ज्ञात हुआ था कि
तलाक़ की कार्रवाई हो रही है; अभी पता चला कि इसी हफ्ते डिग्री हो गयी है
और आप मुक्त हैं। रेखा जी, इस काम के इस प्रकार शान्तिपूर्वक सम्पन्न हो
जाने पर मैं आपको सच्चे दिल से बधाई देना चाहता हूँ, बधाई ही नहीं, आप
अनुमति दें तो अपनी पूरी सहानुभूति प्रकट करना चाहता हूँ। और कोई होता तो
आपको यह याद दिला कर गर्व या सन्तोष महसूस करता कि मैंने पहले से अनुमान
कर लिया था कि ठीक यही होगा और इसी प्रकार होगा; पर वैसे आत्म-सन्तोष के
भाव मेरे मन में नहीं हैं, मैं केवल आपकी उस शान्ति का अनुभव कर रहा हूँ
जो इस समाचार से आपको मिलेगी-उस शान्ति का, और साथ ही मुक्ति की बात सुनकर
उभर आने वाली अनेक स्मृतियों के दुःख का भी...आप ने बहुत दुःख पाया है,
रेखा जी; पर उसकी ग्लानि को अब मन में न आने दें-पुराने दुःखों की भी
नहीं, उस नये दुःख और निराशा की भी नहीं जिससे इधर निस्सन्देह आप गुज़री
हैं...अधिक कुछ कहना नहीं चाहूँगा - कह कर आपके रिज़र्व को कुरेदना या आप
की संवेदना को चोट पहुँचाना बिलकुल नहीं चाहता...।
आप स्वस्थ तो
हैं? आशा है कि इस लम्बे विश्राम से आपका स्वास्थ्य सुधर गया होगा। कहता
कि और दो-एक महीने विश्राम कर लीजिए पर जानता हूँ कि अनिश्चित अवधि तक
निठल्ले बैठ रहना आपके स्वभाव के विरुद्ध है, और आप कहीं बाहर जाना
चाहेंगी ही। आप लखनऊ आवें यह सुझाने की धृष्टता तो नहीं कर सकता : मेरी
अपात्रता के अलावा लखनऊ की घटनाओं का भी स्मरण कराया जाना आप नापसन्द
करेंगी। पर क्या बम्बई का निमन्त्रण दे सकता हूँ? मेरी अपात्रता तो वहाँ
भी उतनी ही रहेगी, पर बम्बई बड़ा शहर है, और वहाँ जीवन है, जागृति है, वह
प्राणोद्रेक है जो संघर्षों में पड़ने पर होता है-बम्बई निस्सन्देह आपको
अच्छा लगेगा और-मुक्त करेगा अवसादों से, अतीत के बन्धनों से, जर्जर
मान्यताओं से, और - आप यह कहने की धृष्टता मुझे करने दें तो कहूँ - स्वयं
अपने-आपसे, क्योंकि जिसे हम अपना-आप कहते हैं वह वास्तव में है क्या? अपने
भीतर की घुटन, जिसे हम अपनी पीड़ा के मोह में एक मूल्यवान् तत्त्व समझ
लेते हैं! अपना-आप कुछ नहीं है, वह घुटना अयथार्थ है, उसके प्रति हमारा
मोह एक धोखा है; सच तो सामाजिक शक्तियों का खेल और खींचातानी और संघर्ष
है, जिसमें हम या तो सहायक हो सकते हैं, या बाधक...आइये, हम सहायक हों;
अतीत के बन्धन न मानें बल्कि वर्तमान का, नये भविष्य का निर्माण करें...।
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