उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
लेकिन
यह तो मैंने बताया नहीं कि बम्बई मैं कैसे बुला रहा हूँ। लखनऊ मैं छोड़
रहा हूँ। और लखनऊ कहता हूँ, तो मेरा मतलब है वह सारा ढाँचा जिसे मैं मानता
रहा। कौशल्या घर चली गयी है, दोनों बच्चों को लेकर-बल्कि कहूँ कि दोनों को
और तीसरे की प्रतीक्षा लेकर; मैं जब उसे वापस घर लाया था तो किसी शर्त या
बन्धन के साथ नहीं, वापस लाने और गिरस्ती चलाने के सब दायित्वों को
स्वीकार करके ही...पर वह चली नहीं, मेरी पूरी कोशिश के बावजूद भी नहीं। और
अब मैं खुश ही हूँ कि वह चली नहीं, क्योंकि वह झूठ थी। गिरस्ती का आइडिया
ही असल में झूठ है; एक काल-विपर्यय है; उस वर्ग-जीवन का प्रतीक है जो वर्ग
ही आज मर रहा है। क्यों हम उसके द्वारा स्वीकृत एक परिपाटी को मानते चलें,
जबकि स्वयं उसमें ही हमारी आस्था नहीं है?
तो मैं बम्बई जा रहा
हूँ। अतीत से नाता तोड़ कर जा रहा हूँ और उसके कोई बन्धन, कोई दायित्व आगे
मानने का मेरा इरादा नहीं है। अपने वर्ग को मैं छोड़ता हूँ; उससे कुछ और
मागूँगा नहीं और इसलिए आगे उसे कुछ देने को, उससे निबाहने को भी बाध्य
नहीं हूँ।
आशा है यह पत्र आपको समय पर मिल जाएगा, और आप उत्तर
देने का कष्ट करेंगी। मैं बराबर प्रतीक्षा करूँगा। आपको सर्वदा एक मुक्त
व्यक्ति के रूप में ही मैंने देखा है, आपके पत्र मेरे लिए बड़ा सहारा
होंगे।
चन्द्रमाधव
चन्द्र द्वारा गौरा को :
प्रिय गौरा जी,
इन दिनों में यह पहली बार नहीं है कि आप को पत्र लिखने बैठा हूँ; और कोई निश्चय करके ढुलमुल करते रहनेवाला स्वभाव भी मेरा नहीं है आप जानती हैं; फिर भी पत्र नहीं लिखा गया इसका कारण यही है कि मैं पाता हूँ, मुझमें और मेरे परिचितों में एक अजीब व्यवधान आ गया है-एक दूरी जिसका कारण समझ में नहीं आता...लखनऊ से बनारस कुछ भी दूर नहीं है, लेकिन मैं जब यूरोप में था और आप मद्रास में, तब अपने को इतना दूर नहीं महसूस करता था जितना अब, और कभी जब सोचता हूँ कि स्वयं जाकर मिल आया जा सकता है तब सहसा लगता है कि मैं मानो मंगल तारे तक हो आने के मनसूबे बाँध रहा होऊँ!
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