उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
प्रिय भुवन;
मौसी अब यात्रा से
ऊबने लगी है; मैं भी ऊब गयी होती अगर पहले अपने से ही न ऊबी हुई होती, और
हम लोग लौट रहे हैं। इस बीच में दो-तीन सप्ताह बीमार भी रही, उसने मौसी को
और उबा दिया। लौटते हुए हम लोग श्री अरविन्द आश्रम भी और श्री रमण महर्षि
के आश्रम भी होते आये। कोई आध्यात्मिक अनुभव मुझे हुआ हो, ऐसा तो नहीं, पर
आश्रमों का वातावरण अच्छा लगा - यद्यपि था दोनों में कितना अन्तर! रमण
महर्षि के दर्शन भी हुए, मौसी ने उनसे कई प्रश्न भी पूछे। उन्होंने
क्या-क्या कहा यह न तो याद है न लिखने में कोई तुक, पर चलते समय मुझसे जो
दो-एक बात उन्होंने कहीं उससे उनकी मानवी संवेदना का गहरा प्रभाव मुझ पर
पड़ा।
अध्यात्म की ओर मेरी रुचि नहीं है, भुवन, उधर सान्त्वना
खोजने की कोई प्रेरणा भीतर से नहीं है। पर सोचा है कि लौट कर फिर कुछ काम
करूँगी और अब आर्थिक आज़ादी की प्रेरणा से नहीं, आत्म-निर्भरता की प्रेरणा
से नहीं, एक डिसिप्लिन के रूप में...। दर्द है तो है; अपना जीवन मैंने उसे
दे दिया, अब कहाँ तक उसे सँजोये फिरूँगी? इस कथन में कुछ विद्रोह का-सा
स्वर है; विद्रोह मुझमें नहीं है, सम्पूर्ण नैराश्य ही है; इतना सम्पूर्ण
कि अब उसकी दुहाई कभी नहीं दूँगी...।
तुम अब पत्र लिखोगे, भुवन?
तुम्हें गये चार महीने हो चले, तुमने अभी पहुँच की भी खबर नहीं दी! वैसे
अखबार में मैंने पढ़ा था; तुम्हें नौ-सेना और वायु-सेना से भी मदद मिली है
- गनबोट में तुम लोग माप लेने गये थे... भुवन, तुम्हारे समाचार अखबारों से
मिला करेंगे, यह नहीं सोचा था। अखबारों में भी निकलेंगे, यह तो विश्वास
था, पर मैं भी उन्हीं पर निर्भर करूँगी, यह नहीं!
गाड ब्लैस यू
रेखा
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