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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


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भुवन द्वारा गौरा को :

गौरा,
खबर तुमने सुनी? ज़रूर सुनी होगी! बड़े धड़ल्ले के साथ जापान युद्ध में कूद आया। और एक ही चोट में उसने अमेरिका को कितना बड़ा आघात पहुँचाया है। देश में बहुत होंगे जो इस पर खुश हो रहे होंगे-चालीस-एक बरस पहले जब जापान ने रूस को हरा दिया था और यूरोप चकित होकर देखता रह गया था कि एक छोटे-से एशियाई द्वीप-राज्य ने एक यूरोपीय साम्राज्य-शक्ति को पछाड़ दिया, तब जो एशियाई गर्व जागा था, उसे आज नया प्रोत्साहन मिलेगा। पर उसमें और इस में जो अन्तर है, उसकी लोग उपेक्षा कर पाएँगे : तब गर्व करना उचित था, क्योंकि एक दबी हुई जाति ने सिर उठाया था और उसमें दूसरी उत्पीड़ित जातियों के लिए आशा का संकेत था; पर अब? अब जापान भी एक उत्पीड़क शक्ति है, साम्राज्य भी और साम्राज्यवादी भी-और आज उसको बढ़ावा देना, एक नयी दासता का अभिनन्दन इस आधार पर करना है कि वह दासता यूरोपीय की नहीं, एशियाई प्रभु की होगी। कितना घातक हो सकता है यह तर्क! परदेशी गुलामी से स्वदेशी अत्याचार अच्छा है, यह एक बात है, यह मानी जा सकती है; पर क्या एशियाई नाम जापान को यूरोप की अपेक्षा भारत के अधिक निकट ले आता है, जापानी को यूरोपीय की अपेक्षा अधिक अपना बना देता है? जाति की भावना गलत है, श्रेष्ठत्व-भावना हो तो और भी गलत-हिटलर का आर्यत्व का दावा दम्भ ही नहीं, मानवता के साथ विश्वासघात है; पर अपनापे या सम्पर्क की बात कहनी हो तो मानना होगा कि यूरोप ही हमारे अधिक निकट है, आर्यत्व के नाते नहीं, सांस्कृतिक परम्परा और विनिमय के कारण, आचार-विचार, आदर्श-साधना और जीवन-परिपाटी की आधारभूत एकता के कारण...यह हमारे भारत के एक स्थानीय प्रश्न (विश्व की भूमिका में हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न को स्थानीय ही मानना होगा) से उत्पन्न कटुता के कारण है कि हम नहीं देख सकते कि न केवल यूरोप के बल्कि निकटतर मुस्लिम देशों के-'मध्यपूर्व' के-साथ हमारा कितना घनिष्ट सांस्कृतिक सम्बन्ध न केवल रहा है बल्कि आज भी है, और हम चीन से, और चीन की मारफ़त जापान से सांस्कृतिक आदान-प्रदान का नाता जोड़ते हैं। फ़ाह्यान और यूवान च्वांग थे, ठीक है; पर अतीत का ऐतिहासिक सम्बन्ध आज का सजीव सम्बन्ध नहीं भी हो सकता है; और केवल मूर्ति-कला को लेकर हम कहाँ तक दौड़े जाएँगे, धर्म और दर्शन, गणित और विज्ञान, आचार और विचार के सम्बन्धों की अनदेखी करके? और हाँ, अत्याचार और उत्पीड़न, दास-दासियों के क्रय-विक्रय, लूट और व्यापार और धर्षण और विवाह के सम्बन्धों की, रक्त के, रीति-रस्म के, कला और साहित्य के, भोजन-वसन के, भाषा के, नामों के मिश्रण की अनदेखी करके? हम किसी देश का, किसी देश की जनता का, अहित नहीं चाहते, पर एशियाई नाम को लेकर जापानी साम्राज्य-सत्ता का अनुमोदन करना या उसके प्रसार को उदासीन भाव से देखना, खण्ड के नाम पर सम्पूर्ण को डुबा देना है, अंग्रेजी कहावत के अनुसार अपने मुँह से लड़ कर अपनी नाक काट लेना है; मानवता के साथ उतना ही बड़ा विश्वासघात करना है जितना उन्होंने किया था जो मुसोलीनी द्वारा अबीसीनिया या हिटलर द्वारा चेकोस्लोवाकिया के ग्रास के प्रति उदासीन थे...।

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