उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
गौरा : भाग 2
1
गौरा
को कमरे में प्रवेश करते हुए भुवन ने न देखा था, न सुना था; उसकी उपस्थिति
को उसने सहसा चौंक कर जाना तो बैठा-का-बैठा रह गया, गौरा ने उसके कोट के
बटन-होल में नरगिस का एक डाँठा लगा दिया और उँगलियों के हलके स्पर्श से
पल्ला सहलाती हट गयी तो भुवन ने पूछा, “ये कहाँ से-इस वक़्त?” रात का भोजन करके भुवन अपने कमरे में आकर बैठा था। सहसा लम्बी यात्रा का अवसाद और दिन-भर के अनुभवों की थकान उस पर छा गयी थी तो कुरसी खिड़की की ओर खींचकर, बदली से घने हो रहे आकाश की पृष्ठिका पर खिंचे हुए पत्रहीन गुड़हल के आकार पर एक नज़र डाल कर उसने हथेलियों से आँखें ढँक ली थीं और स्पष्ट आकार-विहीन किसी विचार में डूब गया था। तनी हुई थकान ढीली पड़ कर मीठी-मीठी फैलने लगी थी।
सुकेत छोटा-सा अच्छा बँगला था; ढाल पर बना हुआ, दुमंजिला; निचली मंज़िल सामने को खुली थी, ऊपर की मंज़िल से सामने से सीढ़ी उतरती थी, पर पिछवाड़े भी उतरने का रास्ता था-ढाल के कारण पिछवाड़े दो-तीन सीढ़ियाँ ही उतरनी पड़ती थीं, फिर एक रास्ता धीरे-धीरे उतरता हुआ सामने की सड़क में आ मिलता था। ड्राइंग रूम और एक बड़ा बरामदा ऊपर था, उसके साथ गौरा के पिता का अध्ययन-कक्ष और फिर सोने का कमरा और एक छोटा कमरा; निचली मंज़िल में भी एक ड्राइंग-डाइनिंग रूम था और तीन सोने के कमरे, पर निचला ड्राइंग-रूम प्रायः काम में नहीं आता था-या किसी बहुत ही औपचारिक ढंग की भेंट के लिए ही सुरक्षित था; और भोजन भी प्रायः ऊपर के बरामदे में होता था। गौरा के माता-पिता ऊपर की ही मंज़िल में रहते थे और पिछवाड़े के रास्ते ही उतर कर टहलने जाते थे; सामने की सीढ़ी शायद ही कभी काम में आती थी-गौरा ही उससे आती-जाती थी। नीचे वाला एक शयनकक्ष उसका था, दूसरा प्रायः खाली रहता था और उसमें गौरा ने पुस्तकालय और वाद्य-यन्त्र रखने का स्थान बना रखा था, वहीं वह संगीत का अभ्यास करती थी। तीसरा कुछ अलग था और उसके बाहर एक बहुत छोटा-सा अलग बाड़ा भी था-यह मेहमान कमरा था और इसी में भुवन को ठहराया गया था।
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