उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“मैं अपने कमरे से लायी हूँ।”
भुवन
ने लक्ष्य किया कि उसके पल्ले पर लगी हुई चार फूलों वाली एक डाँठी ही
नहीं, गौरा एक गहरे ऊदे रंग का फूलदान लेकर आयी है जिसमें नरगिस भरे हैं।
उसने ग्रीवा एक ओर को झुकाकर गहरी साँस से कोट में लगे वृन्त की सुवास
लेते हुए कहा, “सारे ले आयीं-वहाँ नहीं रखे?”
गौरा ने उत्तर नहीं
दिया। चुपचाप थोड़ी देर उसे देखती रही। एक बहुत हलकी मुस्कान-मुस्कान भी
नहीं, एक खिलापन-उसके चेहरे पर था। फिर बोली, “आप को सर्दी तो नहीं लगेगी?
रात को बारिश हुई थी-आज फिर हो सकती है।”
“नहीं, गौरा, इतनी ठण्ड तो नहीं है।”
गौरा ने चारों ओर नज़र डाली। “मैंने दो कम्बल और भी रख दिये हैं-और अँगीठी
में लकड़ियाँ भी चिनी रखी हैं-कहिए तो आग जला दूँ।”
यह भुवन ने नहीं लक्ष्य किया था-क्योंकि कोर्निस के आगे लकड़ी की एक छोटी
तिरस्करणी रखी थी जिससे अँगीठी छिपी हुई थी।
“और डोल में चीड़ की कुकड़ियाँ भी रखी हैं-जलती भी अच्छी हैं और सुगन्ध भी
देती हैं।”
भुवन ने कुछ अधिक तत्परता से कहा, “नहीं गौरा, नहीं-मुझे आग जलाकर सोने की
आदत नहीं।”
एक
सन्नाटा-सा छा गया। गौरा कोर्निस के सहारे खड़ी हो गयी। दोनों अनमने से
एक-दूसरे की ओर देखते रहे। फिर सहसा गौरा ने कहा, “आप थके हैं-मैं जानती
हूँ-किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो आवाज़ दे दीजिएगा।”
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