उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
फिर एक मौन हो गया। भुवन ने पूछा, “क्या सोच रही हो, गौरा?”
“बहुत कुछ।”
“क्या?”
“पर कह नहीं सकती।”
“नहीं सकती, या नहीं चाहती?”
“ठीक चाहती ही नहीं, ऐसा तो नहीं कह सकती-पर-सकती नहीं।”
“मेरे
गुरु कहा करते थे, 'जो विचार स्पष्ट कहना नहीं आता, वह असल में मन में ही
स्पष्ट नहीं है। स्पष्ट चिन्तन हो तो स्पष्ट कथन अनिवार्य है'।” भुवन ने
कुछ गम्भीरता से, कुछ चिढ़ाते हुए कहा।
“चिढ़ा लीजिए। पर मैं जो
सोच रही हूँ, वह मेरे आगे बिलकुल स्पष्ट है। कह नहीं सकती तो-इसलिए कि
सोचना चित्रों से, प्रतीकों से होता है, कहना शब्दों से; और-शब्द-अधूरे
हैं।”
“ऊँहुक्! विचार शब्दों के साथ हैं - शब्द अधूरे हैं तो विचार ही अधूरा
है!” भुवन ने ज़िद की।
गौरा ने सहसा घूमकर, दोनों कोहनियाँ खिड़की पर टेककर उसकी ओर मुँह करके
कहा, “आप-मुझे चैलेंज कर रहे हैं?”
“वैसा
समझो तो” गौरा एकदम गम्भीर हो गयी है, यह उसने लक्ष्य किया, वह खिलवाड़ कर
रहा है ऐसा उसे नहीं लगा, उसका ढंग चिढ़ाने का था पर नीचे गम्भीरता थी।
“तो-अच्छा, वही सही।”
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