उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“तो सुनिए। शब्द अधूरे हैं-क्योंकि
उच्चारण माँगते हैं। मैं कह नहीं सकती थी, पर लिख सकती थी चाहती तो। लेकिन
आप कहलाना चाहते हैं-लीजिए : मैं सोच रही थी-किसी तरह, कुछ भी करके, अपने
को उत्सर्ग करके आपके ये घाव भर सकती-तो अपने जीवन को सफल मानती।”
भुवन ने स्तब्ध भाव से कहा, “यह मत कहो गौरा - मैं और नहीं सुन सकता, और
अब आगे-हल्का ही चलना चाहता हूँ”
“मैं-तुम्हें
कुछ दे नहीं रही; वह मेरी ही साधना होती, मैंने इससे बढ़कर कभी कुछ नहीं
माँगा कि तुम्हारे काम आ सकूँ और आज भी नहीं माँगती।”
भुवन उसके
और पास आ गया। क्षण-भर उसकी उठी हुई ठोड़ी के नीचे कण्ठ की नाड़ी का
स्पन्दन देखता रहा, फिर उसकी ओर सिर झुकाता हुआ बोला, “तुम मेरी कृतज्ञता
लो, गौरा; तुम जो कह रही हो - जो मैंने कहला लिया वही बहुत है और - आइ एम
आल्रेडी हील्ड, नहीं तो तुमसे कह पाता?”
गौरा ने एक हाथ से उसके बाल उलझाते हुए कहा, “न-भुवन-मुझे कृतज्ञता से डर
लगता है उसकी ओट में तुम फिर दूर चले जाओगे न?”
भुवन
सीधा हो गया। “क्या करूँगा, गौरा, यह तो नहीं जानता; यह जानता हूँ कि विधि
ने मुझे मेरी पात्रता से अधिक दिया है। और यह अच्छा नहीं लगता। लोगों से -
अपने स्नेहियों से - अधिक ले सकता हूँ, उनका कृतज्ञ हो सकता हूँ; विधि से
नहीं, क्योंकि उसके प्रति कृतज्ञता का कोई मतलब नहीं होता।”
गौरा के सामने से हटकर वह कमरे में टहलने लगा। गौरा वहीं खड़ी उसे देखती
रही।
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