उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“गौरा, रात बहुत हो गयी - बल्कि यह तो भोर है - जाओ, सोओ अब। सबेरे
उठोगी?”
“हाँ-घूमने चलोगे? पर अभी जाने को जी नहीं है। आग बड़ी सुन्दर जल रही है।”
“तुम
तो इतनी दूर खड़ी हो आग से।” भुवन ने सहसा कोर्निस को देखकर कहा, “और ये
तुम्हारे नरगिस तो इस गर्मी में मुरझा गये, मैंने पहले ध्यान नहीं दिया।”
उसने बढ़कर कोर्निस से फूलदान उठाया और कमरे के पार मेज की ओर ले चला।
गौरा ने रास्ते में आगे बढ़ कर उससे फूलदान ले लिया, बोली, “सूँघिए इनको।”
भुवन ने फूलों में मुँह छिपा कर लम्बी साँस खींची।
“बस, अब मुरझा जायें!” कहती हुई गौरा ने फूलदान मेज पर रख दिया। “और बहुत
हैं - रोज लाऊँगी।”
भुवन ने स्नेहपूर्ण आग्रह से कहा, “अच्छा, अब सोने जाओ।”
“मैं तो सोयी ही थी। तुम्हीं तो नहीं सो पाये - अकेले डर लगता है!” गौरा
ने चिढ़ाया।
भुवन ने मुस्करा कर स्वीकार किया कि वह दोषी है।
“अच्छा, अब तो नहीं डरोगे?” कुछ रुककर, कोमलतर स्वर से, “आग से तो नहीं
डरोगे अब।”
“नहीं। अब नहीं। यह आग तो तुम्हारी आग है।”
गौरा
ने एक क्षण चारों ओर देखा। फिर आगे जाकर बहुत-सी कुकड़ियाँ आग में डाल दी।
बोली, “हाँ, यह मामूली आग थोड़े ही है - आपकी नींद के लिए खास सुगन्धित आग
जलायी गयी है - हाँ।”
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