उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
यह
नहीं कि गौरा ने कहा नहीं था। जब वह अपनी कहानी कह रहा था तब गौरा जिस
प्रकार से अदृश्यप्राय हो गयी थी - फिर सहसा उसने अपने केशों से उसे छा
लिया था - उसे जिसने गौरा को कहा था कि जब वैसा होगा तब वह जान लेगा कि
खोज पूरी हो गयी - फिर उसका अधिकारपूर्वक चन्द्रमाधव की ओर से पैरवी करना;
ये सब क्या हैं अगर नहीं हैं एक आत्म-विश्वास के सूचक, ऐसे आत्म-विश्वास
के, जो किसी गहरे भावैक्य से, सम्पर्क से पैदा होता है? शब्द अधूरे हैं -
उच्चारण माँगते हैं; गौरा अनुच्चारित सम्पूर्ण बात कह गयी है।
भुवन
खड़ा होकर इधर-उधर टहलने लगा। नहीं यह असम्भव स्थिति है, ऐसा नहीं चल
सकता! वह भी अधूरा है, बल्कि पंगु है, क्या हुआ वह पंगुता घाव नहीं है
तो-सम्पूर्ण को वह कैसे स्वीकार कर सकता है? कुछ भी कैसे स्वीकार कर सकता
है जो केवल स्वीकार है, दान नहीं है? 'दो, दो, दो, जब तक कि तुम्हारा हृदय
मुक्त न हो जाये!'-देने में ही मुक्ति है-स्वास्थ्य है। यह तो किसी ने
नहीं कहा कि ले लो, सब स्वीकार करते चलो - दुर्भाग्य हो, व्यथा हो, हाँ,
तब स्वीकार है :
'आमार भार लाघव करि
नाई वा दिले सान्त्वना,
वहन जेन करिते पारि';
( मेरा भार हलका करके सान्त्वना चाहे न भी देना, उस भार को वहन कर सकूँ
(ऐसा ही हो - रवीन्द्रनाथ ठाकुर) -
पर
यह...यहाँ स्वीकार से पहले बहुत सोचने की ज़रूरत है...। उसे याद आयी रेखा
की बात, “और भी बातें सोचने की हैं न, इसीलिए यह बात सोचने की नहीं रही -
यह तभी सोची जा सकती है जब एक और अद्वितीय हो, दूसरी किसी बात से असम्बद्ध
हो।...” वह प्रसंग दूसरा था, और तब वह झल्लाया था, पर रेखा की बात ठीक थी
- रेखा की सब बातें ठीक थीं, क्या हुआ वह फिर भी हारी तो - बल्कि इसीलिए
तो हारी वह; मानव का विवेक सम्पूर्ण नहीं है, पर या तो वह बिलकुल अमान्य
है, या वह अनिवार्यतः सर्वदा मान्य है...नहीं, वह गौरा से कह देगा, आज ही
कह देगा।
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