उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
|
390 पाठक हैं |
व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
वह उद्विग्न-सा बाहर जाने लगा। किवाड़ उसने खोले, फिर
क्षण-भर वहीं ठिठका रहा; दिन तो बहुत चढ़ गया है, क्या इसी रूप में बाहर
घूमना उचित होगा, या वह कपड़े पहन ले?
दूसरी ओर किवाड़ खुला।
उनींदी आँखों को झपकती हुई गौरा निकली। उसे किवाड़ में खड़ा देखकर बोली,
“अरे, तो आप अभी उठे हैं - मैं समझी अकेले घूमने चले गये होंगे - मैं तो
घबरा गयी थी - मैं अभी मुँह-हाथ धोकर आयी, आज तो बड़ा दिन है - मेरा बड़ा
दिन।” सहसा रुककर उसने आँखें बड़ी करके देखा, क्योंकि भुवन तब तक कुछ बोला
ही नहीं था; भुवन के चेहरे का गूढ़ भाव देखकर फिर बोली, “क्या सोच रहे हो
सबेरे-सबेरे, शिशु?” उसकी मुस्कराहट के उत्तर में भुवन भी सायास
मुस्कराया; वह लौटकर फिर कमरे में चली गयी।
भुवन भी किवाड़ खुला
छोड़कर कमरे में लौट गया, और मेज़ के पास लगी कुरसी पर बैठ गया, एकाएक
असहाय। वह कहेगा-कह देगा; पर अभी नहीं, आज के बड़े दिन नहीं...।
सामने मेज़ पर पड़े नरगिस अपनी आँखों से उसकी ओर देखते हुए फीके-से
मुस्करा दिये।
हाँ, यह गन्ध भी तुम्हारी गन्ध है-आग की भी, फूल की भी।
|