| उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
    “कुछ नहीं। दूसरों की बनायी
    हुई लीकों की बात मैं नहीं सोच रही थी। व्यक्तित्व की अपनी लीकें होती हैं
    - एक रुझान होता है। और उसके आगे, व्यक्ति अपने वर्तमान और भविष्य के बारे
    में जो समझता है, जो कल्पना करता है, मनसूबे बाँधता है, उनसे भी तो एक लीक
    बनती है - लीक कहिए, चौखटा कहिए, ढाँचा कहिए। या कह लीजिए दुनिया में अपना
    एक स्थान। मेरा यही मतलब था। आपके सामने - ऐसा मेरा अनुमान है - भविष्य का
    एक चित्र है, कहीं मंजिल है, ठिकाना है। इसलिए रास्ता भी है।” 
    
    “रास्ते तो कई हो सकते हैं, और शार्ट-कट होते नहीं।” 
    
    “शार्ट-कट
    नहीं होते, पर कई रास्तों वाला तर्क बड़ा खतरनाक होता है, भुवन जी; आपके
    सामने एक रास्ता है, वह जिस पर आप हैं। दूसरे रास्ते हो सकते हैं पर चलता
    रास्ता एक ही है - जिस पर आप हैं। चलना तभी सम्भव है।” 
    
    गार्ड ने
    सीटी दे दी थी। गाड़ी भी सीटी दे चुकी थी। भुवन ने कहा, “रेखा जी, आपके
    व्यक्तित्व को देखकर कोई यह नहीं कह सकता कि आपके सामने रास्ता नहीं है -
    आप का ऐसा स्पष्ट, सुनिश्चित, रूपाकार-युक्त व्यक्तित्व है कि...” वह
    शब्दों के लिए कुछ अटका, तो रेखा ने कहा, “आप चलकर गाड़ी पर सवार हो जाइए,
    फिर आगे बात होगी।” 
    
    भुवन ने कहा, “अभी चलने में बहुत देर है।” फिर कुछ शरारत से एलियट की
    पंक्तियाँ दुहरा दीं; 
    
    “बिट्वीन द आइडिया
    एण्ड द रिएलिटी
    बिट्वीन द मोशन
    एण्ड द एक्ट
    फाल्स द शैडो
    फार दाइन इज़ द
      किंग्डम् -”
    
    (कल्पना और यथार्थ के बीच, गति और कर्म के बीच आ जाती है (तेरी) छाया,
    क्योंकि तू ही शास्ता है) 
    			
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