| उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
    रेखा हँसी, कुछ बोली नहीं। भुवन ने कहा, “लेकिन मेरा सवाल बीच ही में रह
    जाता है-आपके पास ऐसी स्पष्ट प्रखर दृष्टि है।” 
    
    “कि
    मुझे सब रास्ते एक साथ दीखते हैं।” रेखा बात काटकर हँस पड़ी। “और हर
    रास्ते के आगे एक मंजिल भी दीखती है, जिसे मरीचिका मानना कठिन है।” वह
    तनिक रुकी, फिर गम्भीर होकर उसने कहा, “और इसीलिए सब मंजिलें झूठ हो जाती
    हैं, और कोई रास्ता नहीं रहता। मैं सचमुच कहीं भी पहुँचना नहीं चाहती -
    चाहना भी नहीं चाहती। मेरे लिए काल का प्रवाह भी प्रवाह नहीं, केवल क्षण
    और क्षण और क्षण का योग-फल है - मानवता की तरह ही काल-प्रवाह भी मेरे निकट
    युक्ति-सत्य है, वास्तविकता क्षण ही की है। क्षण सनातन है।” 
    
    भुवन
    चुपचाप रेखा का मुँह ताकता रहा। रेखा जैसे दूर कहीं से कुछ गुनगुना उठी;
    भुवन ने कान देकर सुना, वह लारेंस की कुछ पंक्तियाँ दुहरा रही थी। 
    
    ”डार्क ग्रासेज़ अंडर
      माई फ़ीट
    सीम टु डैब्ल् इन मी
    लाइक ग्रासेज इन ए
      ब्रुक।
    ओः, एंड इट इज स्वीट
      टु बी
    आल दीज थिंग्स, नाट टु
      बी
    एनीमोर माइसेल्फ़,
    फार लुक -
    आई एम वेयरी आफ़
      माइसेल्फ़ !”
    
    (मेरे
    पैरों तले की घास मानो मुझ में ऊब-डूब कर रही है जैसे झरने में किनारे की
    घास। कितना मधुर है ये सब वस्तुएँ हो जाना और अपना-आप न रहना , क्योंकि
    मैं अपने-आप से ऊब गया हूँ।) 
    			
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