उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
विज्ञान एक ओर ज्ञान-दर्शन है, दूसरी और यन्त्र-कौशल;
बर्बरता ने दूसरे पक्ष को लिया है पहले का खण्डन करते हुए; सभ्यता अगर कुछ
है तो वह पहले का उद्धार करने को बाध्य है-उद्धार करके उसी के द्वारा
दूसरे को अनुशासित रखने को। “मैं नहीं सोच सकता कि मैं कैसे किसी भी
प्रकार की हिंसा कर सकता हूँ, या उसमें योग दे सकता हूँ-पर अगर कोई काम
मैं आवश्यक मानता हूँ, तो कैसे उसे इसलिए दूसरों पर छोड़ दूँ कि मेरे लिए
वह घृण्य है? मुझे मानना चाहिए कि वह सभी के लिए-सभी सभ्य लोगों के
लिए-एक-सा घृण्य है, और इसलिए सभी का समान कर्तव्य है...।”
पत्र के अन्त में 'पुनश्च' करके दूसरे दिन जोड़ी हुई सूचना थी कि वह बर्मा
भेजा जा रहा है।
इसके
बाद तीन महीने तक गौरा को भुवन का कोई समाचार नहीं मिला। कालेज से उसने
अवेतन छुट्टी ले ली और संगीत के अभ्यास में ही अपने को डुबा दिया। उसके
चेहरे की रेखाएँ फिर कभी कठोर, कभी मृदु होने लगीं, और कभी संगीत के
आप्लवन में बिल्कुल लुप्त; कभी उसके चेहरे की आत्म-विस्मृत मुग्ध स्थिरता
को कँपाते हुए-से दो आँसू उसकी आँखों में चमक आते-आँसू वैसे ही अकारण,
बेमेल, अपदस्थ, जैसे कमल के पत्ते पर पानी की बूँदें...फिर जब समाचार उसे
मिला, तो भुवन के पत्र से नहीं, रेखा द्वारा भेजे एक तार से।
और अनन्तर भुवन की एक कापी से।
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