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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


8

रेखा को भुवन के सेना में भरती हो जाने की सूचना समाचार पत्र से ही मिली थी। फिर यह पता उसने स्वयं पूछ-ताछ करके लगाया था कि वह बर्मा में कहीं भेजा गया है। इस समाचार के बाद कुछ दिन तक तो उसने कुछ नहीं किया, फिर भुवन को एक पत्र लिखा :

भुवन,
मुझे पता लगा कि तुम सेना में भरती होकर बर्मा गये हो; यह भी पता लगा कि वहाँ भेजा जाना तुमने स्वयं चाहा था-नहीं तो तुम-से वैज्ञानिक को शायद पश्चिम भेजा जाता-या लंका में। कई दिन तक मैं इस समाचार को ग्रहण न कर सकी, पर अब मैंने उसे स्वीकार कर लिया है, तुम्हारे भीतर की अनिवार्य प्रेरणा को कुछ-कुछ समझ भी लिया है; और जैसे पाती हूँ कि इसमें मेरे लिए मार्ग का भी संकेत है। बीच में एक दिन तुम्हारी निकट उपस्थिति की एक तीव्र व्यथा मन में उठी थी; सम्भव है तुम उस दिन कलकत्ते रहे होगे या कलकत्ते से गुज़रे होओ-यद्यपि आये होते तो मुझे सूचना दी होती ऐसा मैं अब भी मानती रहना चाहती हूँ...फिर एक दिन स्वप्न में तुम्हें देखा था-देखा कि तुम हमारे घर आये हो-हमारे घर, मेरे माता-पिता और छोटे भाई सब की उपस्थिति में, और सबसे मिले हो, पिता तुम्हें बाहर नदी के किनारे की रौंस पर मेरे पास बिठा गये हैं; फिर हम लोग कागज़ की नावें बना कर नदी में डालते हैं और उनका बह जाना देखते हैं। नावें कभी दूर-दूर तक चली जाती हैं, कभी पास आ जाती हैं, कभी टकरा भी जाती हैं; कभी नदी में बहते हुए शैवाल से उलझ जाती हैं। सहसा देखती हूँ कि उन्हीं हमारी कागज़ की नावों में हम भी बैठे हैं-रौंस पर बैठे देख भी रहे हैं, पर नावों में भी हैं; फिर नावें एक बालू के द्वीप में जा लगती हैं जहाँ हम उतर कर नावों को खींचने लगते हैं-पर नावों में बैठे भी रहते हैं। अब हम रौंस पर से देखते भी हैं, नावों में बैठे भी हैं, नावों को खींच भी रहे हैं! फिर देखती हूँ, बहुत से द्वीप हैं, हर एक पर हम नाव में भी बैठे, नाव को खींच भी रहे हैं-और रौंस पर बैठे देख तो रहे ही हैं। सहसा नदी का पानी बहती हुई सूखी बालू हो जाती है, और तुम्हारा चेहरा तुम्हारा नहीं, कोई और चेहरा है; तुम मुस्कराते हो तो वह चेहरा तुम्हारा भी है, पर नहीं भी है; मैं कहती हूँ, यह सपना है, जागेंगे तो तुम्हारा चेहरा दूसरा हो जाएगा, तुम कहते हो, सपना थोड़ी देर और देखो न, फिर चेहरा बदल नहीं सकेगा। फिर मैं तुम्हारी मुस्कान देखती रही; थोड़ी देर में जाग गयी। सपनों के सिर-पैर नहीं होते-होते हों जैसा मनोविश्लेषक जताते हैं तो उनका अर्थ जानने की ज़रूरत नहीं होती-पर मैं जागी एक मधुर भाव लेकर, फिर ध्यान आया कि तुम तो बर्मा में कहीं होगे...।

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