उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
भुवन,
अपनी बात तो मैं कह चुकी। तुम्हारी बात जानना चाहती हूँ। तुम भटक रहे हो,
भटक ही नहीं रहे, मुझे लगता है कि भाग रहे हो। पहले अपने को कोसती थी कि
मुझसे - यद्यपि मेरे कारण तुम्हारे मन पर बोझ न आये इसकी पूरी कोशिश करती
रही हूँ, देवता साक्षी हैं; सफल कहाँ तक हुई वह दूसरी बात है...। पर अब
नहीं कोसती; वह कोसना भी अहंकार ही था क्योंकि अब लगता है, नहीं मुझसे
नहीं, कुछ और है जिससे तुम भागते हो, क्योंकि उससे तुम बँधे हो; जिससे
तुम्हारी नियति गुँथी है, और यह भागना केवल अन्तःशक्तियों का वह
कर्ष-विकर्ष है जो अन्ततोगत्वा अनुकूल स्थिति लाएगा...। मैंने एक बार तुम
से कहा था, हम जीवन की नदी के अलग-अलग द्वीप हैं-ऐसे द्वीप स्थिर नहीं
होते, नदी निरन्तर उनका भाग्य गढ़ती चलती है; द्वीप अलग-अलग होकर भी
निरन्तर घुलते और पुनः बनते रहते हैं - नया घोल, नये अणुओं का मिश्रण, नयी
तल-छट, एक स्थान से मिटकर दूसरे स्थान पर जमते हुए नये द्वीप...।
मेरी
इन बातों को अनधिकार प्रवेश न समझना, भुवन, मुझसे पृथक् जो भी तुम्हारा
निजी है, निज के लिए अर्थवान् है, उससे मुझे ईर्ष्या नहीं, न कोई अनुचित
कौतूहल उसके विषय में है : वह अर्थवान् है तो और अधिक अर्थवान् हो, यही
मेरी प्रार्थना है।
भुवन, तुम्हारे पत्र की, तुम्हारे आशीर्वाद
की, तुम्हारे समाचार की उत्कट प्रतीक्षा करूँगी। तुम्हारी शुभ-कामनाएँ
पाकर रमेश भी प्रसन्न होंगे।
रेखा
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