उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
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क्षण-भर के लिए रेखा को लगा कि सारी स्थिति में कहीं कुछ विपर्यय है, कोई विरोधाभास - कि अस्पताल के लोहे के पलंग पर उस बरसाती दिन में लाल कम्बल ओढ़े भुवन नहीं, वही पड़ी है, और भुवन उसे देख रहा है, और वह असहाय भाव से धीरे-धीरे कह रही है, 'जान, प्राण, जान...' एक ज्वार-सा उसके भीतर उमड़ आया; इतनी व्यथा, इतने गहरे में पर इतनी सहज आह्वेय, उसमें संचित है, इसके तात्कालिक अनुभव से वह लड़खड़ा-सी गयी। फिर तुरन्त सँभलकर उसने धीरे से पुकारा, “भुवन।” लेकिन भुवन ने पहले ही उसे पहचान लिया था, उसके चेहरे पर एक मुस्कान थी और वह कोशिश कर रहा था कि कम्बल के भीतर से एक हाथ निकाल कर रेखा की ओर बढ़ाये।
रेखा ने दोनों हाथ उसके गालों पर रखकर आग्रह से पूछा, “यह क्या कर आये भुवन? तुम्हें मैं ऐसे देखूँगी, ऐसी सम्भावना ही कभी मन में न आयी थी।”
“कुछ नहीं, रेखा!” और भुवन के दुर्बल स्वर में एक नयी गहराई थी जो रेखा को दहला गयी - मानो कोई व्यक्ति नहीं, कोई दूर पहाड़ी जगह बोल रही हो - कोई कन्दरा, या किसी बड़ी-सी चट्टान के नीचे की छाया, “मलेरिया है। अण्डमान से शुरू हुआ था शायद - शायद बर्मा के जंगलों ने बढ़ा दिया, और पेचिश साथ जोड़ दी। वैसे मैं ठीक हूँ - बिलकुल ठीक।”
“जी हाँ, ठीक हैं, सो तो शक्ल ही बता रही है। दुष्ट मलेरिया और पेचिश, वैसे ठीक हैं - और क्या लाते वहाँ से?”
“क्यों-”
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