उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“रहने दीजिए, लगेंगे सम्भाव्य बीमारियों के नाम गिनाने, यही न! बताया भी
नहीं।”
“जब बताने से कुछ फ़ायदा होता, तब बता तो दिया।”
रेखा
बात करते-करते पलंग की बाहीं पर बैठ गयी थी। अब उठकर एक स्टूल पर बैठती
हुई बोली, “लो अब बाक़ायदा विज़िट करूँगी। पहले तुम्हारे हाल पूछूँ।”
“फिर शुरू से बीमारी का इतिहास, फिर पथ्य, फिर।” भुवन मुस्कराया, फिर सहसा
बात बदल कर बोला, “तुम अकेली आयी हो रेखा?”
प्रश्न
समझ कर रेखा ने कहा, “हाँ, भुवन। रमेश यहाँ नहीं हैं। बम्बई गये हैं।
हफ़्ते-भर में लौट आयेंगे, तब लाऊँगी। हम लोग जा रहे हैं विदेश।”
“अच्छा-कब?
मैं हफ़्ता-भर यही रहूँगा शायद - हम सब दक्षिण भेजे जा रहे हैं – बंगलौर -
स्वास्थ्य-लाभ के लिए। यहाँ तो प्रबन्ध के लिए रुके हैं - जहाज़ से आये
थे, अब रेल से जाना होगा।”
रेखा ने कुछ उदास होकर कहा, “ओ।” फिर कुछ देर बाद, “बंगलौर - गौरा तो
मद्रास में है, उसे ख़बर दे दूँ, वह बंगलौर ज़रूर जा सकेगी-”
भुवन ने संक्षिप्त भाव से कहा, “हाँ।” फिर काफ़ी देर बाद, “तुमसे उसका
पत्र-व्यवहार रहा है?”
“हाँ - तुम जो नहीं लिखते; तो मैं गौरा से ही पत्र-व्यवहार कर लेती हूँ।”
भुवन
ने फिर संक्षिप्त ढंग से ही कहा, “हूँ।” थोड़ी देर बाद बात को निश्चित रूप
से नयी दिशा देने के लिए उसने कहा, “रेखा, विवाह करके - कैसा लगता है -
हाउ डू यू फ़ील? या कि-न पूछूँ?”
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