उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
थोड़ी देर बाद गौरा ने सहसा उलाहने से कहा, “तुमने मुझे खबर भी नहीं दी -
यहाँ आते और चले जाते?”
“नहीं
गौरा, इतना बुरा तो नहीं हूँ। मैंने आज तुम्हें पत्र लिखा है - अभी चाहे
गया न हो - मैंने सोचा था, खाट पर पड़े देखने न बुलाऊँगा, जिस दिन उठूँगा
उसी दिन।”
“इतने बुरे हो तुम।” कहकर गौरा रुक गयी। “हो तुम - हैं
आप निरे मास्टर साहब ही - जो सिखाते हैं, स्वयं नहीं सीखते - दूसरों की
बात आप कभी नहीं सोचते।”
भुवन ने सोचते-से कहा, “दूसरों की!” और
धीरे-धीरे आवृत्ति की, “दूसरों की...” थोड़ी देर बाद बोला, “गौरा, अब तक
दूसरा मैं अपने को ही मानता आया, तुम्हारी शिकायत असल में यही है कि
तुम्हें पहला और अपने को दूसरा क्यों माना मैंने; और मेरी मुश्किल यह है
कि मैं वैसा मानने को ग़लत नहीं समझ पाता - अब भी नहीं!”
गौरा ने
कहा, “ऐसा नहीं हो सकता कि कोई बात-ग़लत न हो, लेकिन...” तनिक रुककर,
“बुरा न मानना - लेकिन अहंकार हो? मैं जज़मेण्ट नहीं दे रही, पर बात कहने
का साहस कर रही हूँ क्योंकि तुमने सिखाया है; यह भी तो एक पक्ष हो सकता
है?”
भुवन सोचता-सा काफ़ी देर तक चुप रहा, फिर खोया-सा बोला,
“शायद तुम ठीक कहती हो, गौरा : ग़लत नहीं है, पर अहंकार हो सकता है। मैंने
तुम्हें बहुत कष्ट दिया है न, गौरा?”
गौरा बोली नहीं, भुवन के
स्वर में सहसा जो कोमलता आ गयी थी उससे उसकी आँखों में कुछ चमका; उसने
चेहरा भुवन की ओर उठाया और उसकी दृष्टि भुवन के चेहरे को दुलरा गयी।
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