उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
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दिन छिप गया था, पर गौरा ज्यों-की-त्यों बैठी थी, बत्ती जलाने का उसे ध्यान नहीं आया। वह भी वैसी ही कैनवस की आराम-कुरसी पर बैठी थी जैसी पर भुवन को उसने देखा था, उसकी गोद में पुस्तक नहीं तो कापी पड़ी थी - भुवन की कापी। कैसा अद्भुत था यों बैठ कर दोहरा जीवन जीना - वह गौरा भी थी, जो अपने को भुवन के प्रतिबिम्ब के रूप में देख रही थी, भुवन की बातों को समझ रही थी, उन पर होने वाली अपनी मानसिक प्रतिक्रियाओं की सूक्ष्मतम छाप ले रही थी और लेकर मानो एक निधि में जमा करती जा रही थी, जो मसूरी में लिखे गये अपने उन विचारों को याद कर रही थी जो भुवन के प्रति निवेदित होकर भी भुवन को दिये नहीं गये और वह भुवन भी था - आराम-कुरसी पर बैठा हुआ भुवन, गोद में पुस्तक या कापी में एक-एक दो-दो वाक्य लिखता और लिखकर उन पर और उनके हेतु गौरा या विचार करता हुआ भुवन...।
“स्नेह-शिशु, तुम्हें छोड़कर नहीं भागा। भागा ज़रूर, पर सच कहूँ कि जब भागा तो कुछ अगर साथ लिया तो तुम्हारी प्रतिच्छवि - और मेरे विक्षत मन के कसैले विराग को एकदम कटु हो जाने से बचाया तो उसी ने... अब पीछे देखता हूँ तो लगता है, मुझे यह पहले देखना चाहिए था - जिस उथल-पुथल ने मुझे पकड़ लिया, (जिसकी बात तुम से कर चुका) उससे पहले देखना चाहिए था... वह मुझे छोड़ कर चली गयी 'ए वाइज़र बट ए सैडर मैन' - उस दुःखमय विवेक ने मुझे बताया कि क्या चीज़ है जो अब भी जीवन में आस्था नहीं मिटने देती... फिर भी तुम से दूर क्यों गया - क्यों जाना चाहा? इसलिए कि सीखा, स्नेह में जब मोह भी होता है तब आघात मिलता है - मिलता ही नहीं, तब व्यक्ति स्वयं उसी को आहत करता है जिसके प्रति स्नेह है। इसीलिए सोचा, तुम जानो, उससे पहले ही दूर चला जाऊँ। स्नेह से दूर नहीं, स्नेह के लिए दूर...।
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