उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“भुवन केजुएल्टी हो गया। उसे देश वापस भेजा जा रहा है ठीक होने के लिए।
क्यों जी, ठीक होगे तुम?
“अपने
से ही मध्यम पुरुष में बात करने लगे कोई... सुना है, ज़ेलों में फाँसी के
क़ैदी ऐसा करने लगते हैं। लेकिन अपने से उबरने के दूसरे भी तरीके हो सकने
चाहिए।
“अपने से उबरने के। अपना क्या? क्या कोई अपनी भावनाओं से,
अपने रागों से उबरना चाहता है? या कि केवल एकातिरिक्त सब रागों से ही?
क्यों जी, तुम्हारी क्या राय है?”
“न, गौरा, लगता है यह तुम से
विश्वासघात होगा - यद्यपि वचन मैंने नहीं दिया था। मैं ठीक हो जाऊँगा।
ज़रूर हो जाऊँगा - और तुम से मिलूँगा भी...।”
“देश का आकाश...तुम कहाँ हो, गौरा? मैं लिखना चाहता हूँ।”
“नहीं।
मैं वापस ही जाऊँगा! आगे नहीं देखूँगा। भविष्य नहीं सोचूँगा, क्योंकि वह
नहीं है, वह वर्तमान का ही स्फुरण है। सोचता हूँ, बीच में विचार क्यों बदल
गये थे, तो रैबेल की बात याद आती है : शैतान बीमार हुआ तो उसने साधु होना
चाहा :
द डेविल वाज़ सिक, द डेविल ए मंक वुड बी :
द डेविल ग्रू वेल, द डेविल ए मंक वाज़ ही!
पर यहाँ शायद साधु ही बीमार होकर शैतान होना चाह रहा है!”
“बहुत सुन्दर है लताओं-पत्तियों की झाँझरी यह
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