उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“आज से छः महीने
पहले तुम्हारे साथ आग के पास बैठा था - आग के डर से मुक्त होकर...और आज -
वह बड़ा दिन था। यों आज वास्तव में बड़ा दिन है - उत्तरायण के एक-आध दिन
ही इधर-उधर-और वह दिन के हिसाब से तो छोटा ही दिन था! मैं देखता हूँ वह आग
: हम दोनों से एक-दूसरे की ओर झरती हुई सान्त्वना और आश्वासन की धारा - यह
मेरा अहंकार तो नहीं है कि 'एक-दूसरे की ओर' कह रहा हूँ?
“मैंने कहा था, यह तुम्हारी आग है। तुमने कहा था, आग से डरना मत। तब से
मैं मानो उसे लिये-लिये कहाँ-कहाँ फिर रहा हूँ...।”
“मैं
लेटा था, किसी ने आकर पूछा, रेडियो सुनोगे? और लगाया : सहसा शून्य में से
क्या आवाज़ आयी जानती हो? 'मोर वीणा उठे कौन सुरे बाजि-कौन नव चंचल छन्दे।
ए अम्बर प्रांगण माझे निःस्वर मंजीर गुंजे'* (*आकाश ही मेरा घर है, जिसमें
वह छन्द गूँजता है - रवीन्द्रनाथ ठाकुर)...”
“मैंने तुम्हें ख़बर
नहीं दी। अब कभी-कभी विचार उठता है - क्या भूल की? क्योंकि अब यह
ज़रा-ज़रा-सा लिखना भी कठिन होता जाता है - मेजर भुवन मास्टर साहब का एक
काला धुँधला खोल भर है, शक्ति-हीन, लगभग निर्जीव...लेकिन यही ठीक है
गौरा-यही ठीक है जब तक मुझे होश रहेगा, तुम्हें आशीर्वाद देता रहूँगा -
अगर न रहेगा - तो भी वह आशीर्वाद रह जाएगा! इस जीवन से आगे कुछ नहीं है
गौरा, यही सम्पूर्ण है, यही अन्त है। लोग ऐसा मानने से डरते हैं, मुझे
लगता है, यही तो जीवन को अर्थ देता है। इस जीवन का दर्द इसलिए मूल्यवान्
नहीं है कि किसी दूसरे जीवन में उसका पुरस्कार मिलेगा; इसलिए मूल्यवान् है
कि जीवन से आगे और कुछ नहीं है। क्योंकि मूल्य किसी पड़तालिये के लिए नहीं
होता जो रोकड़ मिला कर तय करे कि क्या हाथ आया, मूल्य है तो उस व्यक्तित्व
के लिए जो उस दर्द में से गुज़र रहा है और मूल्य उसी अवस्था में है...।”
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